उसकी मुस्कान
कई वर्षों पहले पीपल के वृक्ष के नीचे चबूतरे पर टोली बनाकर गुड्डा – गुड़ियों का विवाह करना जैसे; आदि खेल समूह में मिट्टी के बर्तनों के साथ खेलते हुए जाने कब जवानी दहलीज पर आ खड़ी हुई उसे एहसास ही नहीं हुआ। अब वह समय के साथ इन सबसे दूर कल्पनाओं में खोने लगी। वातावरण प्रतिकूल होने पर भी उसकी इच्छा शक्ति प्रबल रहती। विभिन्न रंगों से मन के कोरे कागज पर आकृतियाँ उकेरती। उन्हें ऊँची – ऊँची उड़ान भरने के लिए कहती। जैसे; लगता है वह स्वयं को जाग्रत कर रही है। सपने देखने का यही सही समय होता है। उसकी अंतश्चेतना शनै:शनै: प्रगति पथ की ओर बढ़ रही थी। उसकी एक अलग दुनिया थी। उसकी आत्मा – परमात्मा की खोज में सदैव विचरण करती। वह गौतम बुद्ध आदि महापुरुषों के जीवन चरित्र से प्रभावित रहती।
हाँ, बात मैं शीतल की कर रही हूँ जिसका गाँव गोमती नदी से दस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। उसके जिले की इमरतिया दूर दूर तक प्रसिद्ध हैं। इंटर कॉलेज के दिनों में शीतल की सहेली श्वेता थी। गर्ल्स कॉमन रूम के सामने धूप में बेंच लगाकर लड़कियाँ बैठती थीं। आपस में बातचीत, हँसी मजाक करती थीं। एक दिन श्वेता ने शीतल का मुख पकड़ के कहा – “यार! तुम्हारा चेहरा कितना मासूम है, तुम्हारी मुस्कान कितनी अच्छी है। मेरा चेहरा रुखा रुखा सा है, इतना मैं ध्यान देती हूँ, तब भी यही हाल है।” शीतल मन ही मन प्रसन्न होती है लेकिन भाव को प्रकट नहीं करती। वह मुस्कुराकर कहती- “नहीं यार ! मुझे तुम भी बहुत अच्छी लगती हो।” अच्छी भी क्यों न लगे दोनों शिशु कक्षा से एक साथ पढ़ते हुए, दसवीं कक्षा में चली गईं लेकिन, नौवीं कक्षा से दोनों का विषय अलग – अलग था। शीतल कला विषय में तो श्वेता विज्ञान विषय में अध्ययन किया। उसे अपनी मुस्कान पर इतना ध्यान नहीं था।
किसी की बहुत प्रशंसा करना, वह भली-भाँति समझती थी, चने की झाड़ पर चढ़ना जैसा; तो नहीं। कुछ लड़कियों ने यहाँ तक कह दिया कि “जब तुम हँसती हो एकदम अपने भैया की तरह ही हँसती हो।” वह भी उनकी खिंचाई करते हुए कहती- “क्यों नहीं ? हम भाई – बहन हैं, तुम सब बड़े ध्यान से देखती हो मेरे भैया ! को। यहाँ पढ़ाई करने आती हो तो पढ़ने पर ध्यान दो ! किसी की भी दाल नहीं गलेगी। ” जब वह नौवीं कक्षा में थी तो उसका भाई सुमित भी बाहरवीं कक्षा में पढ़ रहा था।
पोस्ट ग्रेजुएट बाद के बाद शीतल की शादी जौनपुर जिले के मछली शहर से पाँच किलोमीटर की दूरी पर स्थित खजुरहट गाँव के संभ्रांत परिवार में हो गई। कुछ दिनों के बाद वह अपनी सास, पति के संग इलाहाबाद ( प्रयागराज ) में आकर रहने लगी। शादी के आठ साल बाद उसकी सास गुजर गई।
आजकल कहते हैं छोटा परिवार सुखी परिवार। लेकिन, उसकी दृष्टि में बड़ा परिवार खुशहाल परिवार। अक्सर वह बचपन के दिनों को याद करतीं। वैसे भी लड़कियों का मोह मायके से अधिक होता है। कहीं आने – जाने के बारे में वह सोचकर रह जाती। उसको फुर्सत ही नहीं मिलती। तीन बच्चों की परवरिश (दो बेटी एक बेटा ) घर की जिम्मेदारी, देखरेख कितने कार्य होते हैं,सारा दिन उसी में उलझी रहती।
एक दिन रात का खाना खाने के बाद बेडरूम में पति – बेटे संग बातचीत कर रही थी तो वह किसी बात पर हँस पड़ी। प्रकाश एकटक उसको देखे जा रहे थे, कहे बिना नहीं रह पाए – “शीतल तुम्हारी हँसी कितनी अच्छी है, तुम हँसती बहुत बढ़िया हो ! मुझे तुम्हारी हँसी बहुत प्यारी लगती है। जब तुम रोती हो तो मुझे सबसे खराब दिखती हो। “
इतने में उसका बेटा चीकू बोला- “डैडी! मम्मा का चेहरा गुड़िया जैसे दिखता है। जब मम्मा हँसती है तो मम्मा का दोनों गाल लाल हो जाते हैं।” शीतल बेटे को पकड़कर कहती है- “अरे मेरा बच्चा ! तू मुझे कितने ध्यान से देखता है। उसको दुलारने लगती है।” उसको ऐसा लगता है जैसे ; अतीत आज मेरा वर्तमान हो गया है क्या ?
उसे पडोस की भाभी का चेहरा याद आता है। जब वह कॉलोनी में रहने के लिए आई थी तो एकदिन उन्होंने उससे यही कहा था – “इस कॉलोनी में जितनी महिलाएँ हैं उन सब में आपका चेहरा एकदम मासूम है।” पास – पड़ोस में खुशहाल वातावरण हो तो मन लगता है। इन्हीं ख़्यालों के साथ उसकी रात ढल गईं।
दूसरे दिन सूर्योदय की लालिमा के साथ शीतल मंद मंद मुस्कान बिखरते हुए फूल – पौधों की देखरेख करने लगी। अब वह एहसास कर चुकी थी कि शायद मेरी मुस्कान अच्छी है। मेरा बच्चा तो बारह साल का है। वह मेरी झूठी प्रशंसा क्यों करेगा ? हर किसी रिश्ते में स्वार्थ जुड़ा रहता है। बच्चे भगवान के रूप में होते हैं। छल, कपट से परे होते हैं; सच्चा प्रेम तो यही है। एक बार फिर मुस्कुरा देती है। “गुड़िया जैसे मुख पर उसकी मुस्कान उसे और खूबसूरत बना देती।”
— चेतना प्रकाश चितेरी