ग़ज़ल
थोड़ा उस पर मरता हूं
थोड़ा जिन्दा रहता हूं।
प्यार मिले मुझको उसका,
फितरत ऐसी करता हूं।
खोना उसका मुमकिन है,
इतना तो मैं डरता हूं।
भूल कहां पाया उसको,
यादों – यादों तिरता हूं।
जीवन मेरा अपना है,
उसको लेकर फिरता हूं।
चेहरा तो पहचान सके,
तस्वीरों में रहता हूं।
थोड़ा तुम्हें समझने को,
उलझा – उलझा रहता हूं।
खुद को तुम सा दिखने को,
तुमको अपना कहता हूं।
तुमको अपना मान सखे,
आंखों -आंखों रहता हूं।
— वाई. वेद प्रकाश