माला
रह जाते हो मुझमें थोड़ा-थोड़ा
रह रह मुझ में यादें कितनी दे डाला,
बीते उन कई सालों में पिरोई यादों की माला,
उस माला के पुष्पों को मैं जहाँ भी छूकर जाती हूँ,
तरंगित हो जाता ह्रदय-मन जैसे पी ली हो हाला।
हाला को ज्यों चखती हूँ तो मन मचल मचल जाता है,
गुजर चुका है तू इस वक्त छूटा तुझसे न नाता है,
एक पुष्प फिर गूंथे माला में अरु कर ले उसको संचित
माला में गूंथ जाने को नवीन पुष्प फिर आता है।
— सविता