ये शहरों का विधान
मैं व्याकुल और परेशान हूँ
शहर के नीतियों को देख हैरान हूँ
अर्द्धदिवस का काम देते हैं
आमजन यह सब कैसे सह लेते हैं?
गाँवों में आधे बेर तक काम होते हैं
उसमें भी मनोरंजन की भेंट देते हैं
इतने मे रवि तो पूरा ढल जाता है
शशि भी पूर्ण रूप में आ जाता है
कुछ अन्य करने की बेला नही होती
हँसी-विनोद की खेला नही होती
इतने अवधि में तो घुटन हो जाती है
ज्यों मालिक की जूठन हो जाती है
निज कुटुम्ब हेतु कुछ बेर नही
कर्मो में हल्की भी देर नही
किसी में आत्मीयता का भाव नही
मालिक-नौकर में कोई लगाव नही
उनके लिए मैं केवल मशीन हूँ
कोष भरने की नोट रंगीन हूँ
इतने मे भी खाने को लाले पड़े हैं
महंगाई मुँह फाड़े खड़े हैं
इधर शिशु वनिता भी रहती क्रुद्ध है
अनवरत लड़ता हूँ यह युद्ध है
इतने पर भी साहब फब्तियाँ कसते हैं
और मुझ पर निज लोग भी हँसते हैं।।
— चन्द्रकांत खुंटे ‘क्रांति’