जिज्ञासा, तर्क और विचार का आदि मूल वेद हैं
समझने वाले बिना समझाये भी समझ जाते हैं और नहीं समझने वाले समझाने से भी नहीं समझते. यह दुनिया ऐसी ही है. जहाँ अपनापन होता है, वहाँ वाद- विवाद नहीं होता है. माता, पिता, भाई, बहन, पत्नी, पति, मित्र और गुरु से वाद- विवाद नहीं होना चाहिये. इनमें परस्पर इतना समर्पण, ममत्व, प्रेम, सम्मान और आदर भाव होता है कि अपना पक्ष समझाने या उनका पक्ष समझने के लिये तर्क- वितर्क के बजाय ये भाव ही काफी होते हैं. यदि इन रिश्तों में भी तर्क -वितर्क और वाद -विवाद होने लगे तो फिर परस्पर खटास का हो जाना अवश्यंभावी हो जाता है. परस्पर जिन भावों को कहने में भाषा, शब्द, वाणी और तर्कयुक्ति असफल रहते हैं, उनको मौन की भाषा में सरलता और सहजता से समझा और समझाया जा सकता है. भावनाओं का जगत विचार, तर्कयुक्ति, तर्कबुद्धि, संदेह और वाद-विवाद के जगत से गहरा होता है. प्रेम, समर्पण, करुणा, संवेदनशीलता जहाँ से उपजते हैं, वहाँ तर्क, संदेह, बुद्धि आदि की पहुंच नहीं है. किसी दूसरे को जब हम अपने विचारों को ही विचारों के माध्यम से नहीं समझा पाते हैं तो फिर अपनी भावनाओं को कैसे उन तक संप्रेषित कर पायेंगे?मौन को समझना और समझाना सर्वाधिक मुश्किल है. वास्तव में यह समझने और समझाने का विषय नहीं है. यह तो पीने और जीने विषय है. यह तो आनंदमय जीवन जीने का एक ढंग है. अपने आपको बडे विचारक या मित्र या हितैषी कहने वाले लोग अपने किसी नजदीकी को चुभे कांटे के दर्द को महसूस नहीं कर सकते हैं, तो फिर भावनाओं या मौन को कैसे समझ पायेंगे? अधिकांशतः लोग थोथे दावे करते हैं. उनके पास सिर्फ थोड़ी बहुत दैहिक समझ होती है. इसी के आकर्षण से वो खिंचे चले आते हैं. क्षणिक तृप्ति हुई नहीं कि भाग खड़े होते हैं. बस दैहिक आकर्षण को वो प्रेम, मैत्री, फ्रैंडशिप आदि कहकर जीने मरने की झूठी कसमें खाते हैं. यह सब सतही, उथला और भौतिक होता है. आत्मा को तो यह स्पर्श भी नहीं कर पाता है. जीवन जीने के लिये है, बकवास फिलासफी झाडने के लिये नहीं. पल प्रतिपल जीओ. आज और केवल यही. इसी क्षण जीवन है. अतीत और भविष्य सभी मृत हैं.
जिन वेदों के बारे में हमारी सनातन से यह मान्यता है कि ये ज्ञान और विज्ञान के आदि स्रोत ग्रंथ हैं. उन वेदों को भूलाकर हमारे आजकल के तथाकथित संत, मुनि, योगी, संन्यासी, स्वामी, शंकराचार्य, महामंडलेश्वर और कथाकार आदि अपनी अलग अलग खिचड़ी पका रहे हैं. अपने अनुयायियों द्वारा ये स्वयं को ही परमात्मा के रूप में पूजवा रहे हैं. कोई कुछ कहे तो सब उसे नास्तिक या सनातन विरोधी कहकर उसके पीछे पड जाते हैं. जिन वेदों ने सृष्टि के आदि में मानव बुद्धि में सर्वप्रथम जिज्ञासा, प्रश्न, तर्क, विमर्श आदि करने के बीज बोकर अंकुर उगाये थे, उन्हीं वेदों को आजकल के हमारे धर्मगुरु बिलकुल भूला चुके हैं. किसी मित्र ने मानव चित्त में जिज्ञासा के मूल वेदों के नासदीय सूक के संबंध में ठीक ही कहा है कि वेदों की केवल सात ऋचाएँ, केवल सात छंद, एक ऐसी सृष्टि के शुरू की कविता, जो विचार तो देती है, लेकिन किसी भी तरह की स्थापना करना नहीं चाहती. जिज्ञासा जगाकर छोड़ देने वाली यह प्रसिद्ध कविता आरम्भ से ही अपना ध्यान आकर्षित करती रही है. यहाँ मनुष्य की आदिम जिज्ञासा को पहली बार स्वर मिला, छंद मिल. पहली बार मनुष्य ने सीधे और सरल शब्दों में किसी अदृश्य, किन्तु सर्वोच्च शक्ति का अस्तित्व स्वीकार किया. यह पहली बार है कि ऋषि अपने स्वीकार को अंतिम नहीं मानता और न ही दूसरों को मान लेने का आग्रह करता है। नासदीय सूक्त का ऋषि गाता है कि तब असत् नहीं था, सत् भी नहीं. ‘ है तो यह वैज्ञानिक और दार्शनिक निष्कर्ष, किन्तु ऋषि इसके सत्यापन के लिये आगे की पीढ़ी को खुला निमंत्रण देता है. मनुष्य को विचार करने के लिये खुला छोड़कर उसे उड़ने के लिये पंख देना, यही इस नासदीय सूक्त का उद्देश्य है. यह सूक्त दर्शनशास्त्र का महाद्वार समझा जाता है. यहीं से सर्व धरा के मनुष्यों ने सोचना-विचारना आरम्भ किया. यहीं से ज्ञान-विज्ञान , ऋत और सत्य, चेतन और अचेतन, असत् और सत् को लेकर गम्भीर विवेचना शुरू हुई.
लेकिन हमारे आजकल के धर्मगुरु तो धन, दौलत, गाड़ी, बंगले, बैंक बैलेंस , पद और प्रतिष्ठा बनाने में व्यस्त हैं. और आश्चर्य देखिये की यही लोग कहते हैं कि सनातन धर्म और संस्कृति खतरे में हैं.
सच तो यह कि भारत में दर्शनशास्त्र से उसका ‘क्यों’ छीन लिया गया है. विज्ञान और वैज्ञानिकों ने दर्शनशास्त्र से उसके क्यों को एक षड्यंत्र के तहत हथिया लिया है. जब यह क्यों को छीनने और हथियाने का षड्यंत्र हो रहा था तो दर्शनशास्त्र और दार्शनिक गहन निद्रा में सोये पडे थे. यह सोचकर सोये हुये थे कि सर्व विषयों के आदिमूल माता और पिता दर्शनशास्त्र को कोई कैसे धोखा दे सकता है? लेकिन यह धोखा जितना पश्चिम में हुआ है, उतना ही पूर्व में भी हुआ है. आखिर पिछली दो सदियों से पूर्व पूर्व न रहकर पश्चिम का अंधानुयायी बना हुआ है.
आज से लगभग डेढ सौ वर्ष पहले महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपने यजुर्वेद भाष्य के अंतर्गत इसके प्रथम मंत्र ‘विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव. . . . ‘ का भाष्य करते हुये ‘ज्ञान’ और ‘विज्ञान’ को वैज्ञानिक ढंग से परिभाषित किया है. उन्होंने कहा है कि विज्ञान होने के ये हेतु हैं कि जो क्रिया प्रकाश, अविद्या की निवृत्ति, अधर्म में अप्रवृत्ति तथा धर्म और पुरुषार्थ का संयोग करना है. जो जो कर्म विज्ञानपूर्वक किया जाता है, वह सुख का देनेवाला है, इसलिये सब मनुष्यों को विज्ञानपूर्वक ही कर्मों का अनुष्ठान नित्य करना चाहिये. क्योंकि जीव चेतन होने से कर्म के बिना नहीं रह सकता. कोई जीव ऐसा नहीं है जो अपने मन, प्राणवायु और इंद्रियों को चलाये बिना एक क्षण भर भी रह सके. ईश्वर ने ऋग्वेद में गुण और गुणी के विज्ञान के प्रकाश द्वारा सर्व पदार्थ प्रसिद्ध किये. इसी तरह से यजुर्वेद में मनुष्यों द्वारा पदार्थों से उपकार लेने के लिये की जाने वाली क्रिया तथा उस क्रिया के अंग और साधनों का प्रकाशन किया गया है. आज का युग यदि महर्षि द्वारा दी गई विज्ञान की परिभाषा के अनुसार आचरण करे तो सारी धरा पर खुशहाली, संपन्नता और भ्रातृत्व भाव का प्रसार हो जाये. लेकिन हमारे शिक्षा संस्थानों ने तो विज्ञान पर जैसे पश्चिम का एकाधिकार ही मान लिया है. सनातन ग्रंथों में विद्यमान धर्माचरण, अध्यात्म, योग साधना, विज्ञान, नैतिकता, पर्यावरण, शिक्षा, खेतीबाड़ी आदि की घोर उपेक्षा हो रही है. इसके लिये जहाँ पर हमारी शिक्षा व्यवस्था जिम्मेदार है, वही पर हमारे पौराणिक पुरोहित, धर्मगुरु, कथाकार, शंकराचार्य, महामंडलेश्वर आदि भी जिम्मेदार हैं.
भारत राष्ट्र केवल बुद्धों और गांधियों का ही नहीं अपितु युद्धों और योद्धाओं का राष्ट्र भी है. यह राष्ट्र केवल शांति, सहअस्तित्व, क्षमा और भाईचारे का ही राष्ट्र नहीं है अपितु क्रांति, प्रतिशोध, वीरता, बदले की धधकती ज्वाला और त्वरित दंड देने की भूमि भी है. यह राष्ट्र केवल अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का ही राष्ट्र नहीं है अपितु ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र, सुदर्शन चक्र, गांडीव धारण करके जुल्मियों को सबक सिखाने वालों का भी राष्ट्र है. यह राष्ट्र केवल मनु, भृगु, वशिष्ठ, पाराशर, विश्वामित्र, वेदव्यास, विदुर आदि का ही राष्ट्र नहीं है अपितु श्रीराम, हनुमान, परशुराम, श्रीकृष्ण, अर्जुन, भीम, अभिमन्यु, चंद्रगुप्त मोर्य, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य, शुंग, समुद्रगुप्त, हर्षवर्धन, राणा प्रताप, राणा सांगा, सूरजमल, बाजीराव, सुभाषचंद्र बोस का भी राष्ट्र है. विदेशों में जाकर जो बेपेंदी के लोटे अवसरवादी नेता भारत को केवल बुद्ध और गांधी का राष्ट्र कहते हैं, वो भारत को कायरता, पलायन और दब्बूपने की गहरी घाटियों में धकेलने का काम कर रहे हैं.
डॉ. प्रशांत आचार्य ने बिलकुल सत्य कथन किया है कि भारत में उच्च कोटि का दर्शनशास्त्र तो सनातन से रहा है. लेकिन इसे केवल भारतीय दर्शनशास्त्र- कहना सही नहीं है. दर्शनशास्त्र दर्शनशास्त्र होता है. वह भारतीय या पाश्चात्य जैसा कुछ नहीं होता है. दर्शनशास्त्र के साथ भारतीय या पाश्चात्य संबोधन जोडने का काम पाश्चात्य विचारकों, विशेष रूप से मैक्समूलर आदि ने किया है. उनका अंधानुकरण करके बाद में सभी भारतीय और पाश्चात्य विचारकों ने दर्शनशास्त्र को भारतीय और पाश्चात्य में विभाजित करना शुरू कर दिया. भारतीय विचारकों सुरेन्द्र नाथ दासगुप्ता, राधाकृष्णन, जदुनाथ सिन्हा आदि सभी ने इसे भारतीय दर्शनशास्त्र कहना और लिखना शुरू कर दिया. द्वैतवादी माधवाचार्य विद्यारण्य ने भी इसे ‘सर्वदर्शनसंग्रह’ में तथा जैनाचार्य हरिभद्रसूरि ने ‘षड्दर्शनसमुच्चय’ में दर्शन या दर्शनशास्त्र ही कहा है.
प्रसिद्ध वैदिक भौतिकविद् आचार्य अग्निव्रत ने ठीक ही कहा है कि एक किसान या तांगेवाला या ऊंटगाडी वाला अपनी गाड़ी में अधिक सामान लादकर ले जाता है तो उस पर पशू क्रूरता निवारण विभाग की तरफ से कानूनी कार्रवाई की जाती है. लेकिन प्रतिदिन लाखों गाय, भैंस, ऊंट, भेड, बकरी, मुर्गे आदि मांस के लिये काटे जा रहे हैं, उन पर कोई कारवाई नहीं होती है. यह कैसा भारत है हमारा? मनु, श्रीराम, वशिष्ठ, पाराशर, भारद्वाज, महावीर, सिद्धार्थ बुद्ध का अहिंसा परमो धर्मः तथा सब जीवों के प्रति करुणा का उपदेश कहां छिपा दिया गया है?सभी धर्मगुरु , सुधारक, पर्यावरणविद् और नेता इस पाखंड और दोगलेपन पर मौन हैं. सनातन धर्म और संस्कृति के ठेकेदार कहलवाने वाले तथाकथित अरबपति धर्मगुरु वास्तव में सनातन धर्म और संस्कृति के सबसे बडे दुश्मन प्रतीत हो रहे हैं. संन्यासी, धर्मगुरु और योगाचार्य तो हर हालत में सत्यवादी होते हैं. लेकिन आजकल तो ऐसा कहीं पर भी दिखाई नहीं दे रहा है. चार्वाक का विरोध करने वाले हमारे धर्मगुरु और विचारक वास्तव में चार्वाक के सबसे बडे अनुयायी बने हुये हैं. समाजवाद और साम्यवाद का दम भरने वाले लोग संघ और भाजपा के दफ्तरों में हुक्के भर रहे हैं या उनके लिये दरियाँ बिछाने का काम कर रहे हैं. अपने आपको किसान का बेटा कहने वाले लोग खेतीबाड़ी को बर्बाद करने पर लगे हुये हैं. शिक्षक कहलवाने वाले लोग मोटी मोटी तनख्वाह को डाकारते हुये प्रोपर्टी एजेंट बने हुये हैं. शिक्षा देने के सिवाय ये सब कुछ कर रहे हैं.
— आचार्य शीलक राम