सब रीत मेरे विपरीत
ये रीत के ठेकेदारों ने
निज स्वार्थ को नियम बनाये।
हर ठौर में विपरीत
भिन्न-भिन्न के विधि लगाये।
भर्ता के प्राण हरण पर
जगत में हम बेवा कहलायें।
निज के लिए कोई विधान नही
भले अश्रु घुटन में हम मर जाये।
इस कायदा ने चूड़ी तोड़।
ग्रीवा की लटकती सिकड़ी मरोड़।
माथ के लालिमा कुमकुम पोंछ
हीनता की ओर नाता मोड़।।
तज देते एकांतवास में।
विरह को करने एहसास में।
वेदना को हमारे हिस्सा छोड़
मौज करते हमारे प्रवास में ।।
उनमें परिणय का एक चिह्न नहीं।
तोड़े-पोछे ऐसा कोई विधि भिन्न नही।
व्याह-विधुर सबमें एक सरिस
मर भी जाए तो कोई खिन्न नही ।।
— चन्द्रकांत खुंटे ‘क्रांति’