धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

कुम्भ पर्व 

 भारतीय दर्शन में जीवन को नश्वर कहा गया, उसके प्रति मोह न रखने का प्रबोध दिया गया, स्वर्ग और मोक्ष का विधान किया गया। जन जन की इस जिजीविषा को केन्द्र में रखकर ही हमारे मनीषियों ने अमृत कुम्भ का रूपक रचा। 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित (महाकुंभ का महाभारत) आर्य मेघा को जब यह मंत्र सूझा होगा— 

 पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णम्वावशिष्यते।। 

 तो उस पूर्णता का बिम्ब अमृत कलश के रूप में हुआ होगा। इस कलश में जीवन की समग्रता के वे सारे अंकुर भरे होंगे जिनमें मृत्यु और अभाव भी रचना प्रक्रिया के पूरक बन जाते हैं। जहाँ जन्म मरने के लिए नहीं होता अपितु नित्य नूतन का संचार करने के लिए होता है। 

डॉ रमाकांत आंगिरस (श्री कुम्भदर्शनम्) पुराणों की आख्यायिकाओं में बार बार जीव मात्र के लिए इस संसार को घोर सागर कहा गया है। 

 संसार सागरे घोरे ज्योतिरूपां सदा भजे। 

 देवीभागवत् स्पष्ट संकेत करता है कि इस घोर संसार में भी ‘अमृत गमय’ की संभावना सदा जीवन्त है। जिसका प्रत्यक्ष करने के लिए भारत का असंख्य जनबल नदियों की ओर दौड़ पड़ता है। आकाशीय नभमंडल में कुछ विशेष ग्रहों के विशिष्ट राशि स्थान में समागम होने से भारत की विशिष्ट नदियों के संगम स्थल पर स्नान करने, यज्ञ दान सत्संग का प्रारम्भ हो जाता है। शास्त्रों के अनुसार- 

 मेषराशिगते जीवे मक्के चन्द्रभास्करौ। अमावस्या तदा योग: कुम्भख्यस्तीर्थनायके।।

 जिस समय बृहस्पति मेष राशि में स्थित हों और चन्द्रमा व सूर्य मकर राशि मे स्थित हों, अमावस्या तिथि के काल का योग हो, उस समय तीर्थ राज प्रयाग में कुम्भ पर्व होता है।

 प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित जी ‘महाकुंभ का महाभाव’ में भारतीय वाड्ंमय के आधार पर कुम्भ के गूढ़ अर्थ व फलितार्थ का वर्णन करते हैं- 

 कुत्सित उम्भयति दूरयति जगद्वितायेति: इति कुम्भ:। 

अर्थात् जो जीवन को कुत्सित तत्वों से दूर कर देता है, जिसमें विकार छनकर बैठ जाते हैं, वह कुम्भ है। 

 कुं भाययति दीपयति तेजोवर्धनेति। 

जो पृथ्वी को सुशोभित करता है, तेजोदीप्त करता है, वह कुम्भ है। 

 कुंभ= 

कुं— पृथ्वी के प्राणियों का 

 भ—- प्रजनन 

अर्थात् कुम्भ कुम्भी के युग्म द्वारा सृष्टि का विस्तार, कुम्भा ऋषि की तरह। 

 डॉ देवेन्द्र दास सुदामा जी कुम्भ पर्व: – तत्व और राष्ट्रीय एकता में उपनिषद के सन्दर्भों के साथ कहते हैं—

 श्रण्वन्तु विश्र्वे अमृतस्य पुत्रा:। 

भारतीय संस्कृति संसार के प्रत्येक मनुष्य को अमृत पुत्र घोषित करती है। हर दृष्टि से प्रत्येक मनुष्य अमृत का कुम्भ है। इसका प्रमाण उपनिषदों के चार तत्व हैं 

 तत्वमसि 

अहं ब्रह्मास्मि 

सर्व खल्विदं ब्रह्म 

सोऽहं 

 कुम्भ का सम्बन्ध क्षीरसागर में अमृत मंथन से जुड़ा है। क्षीरसागर हमारा शरीर है जिसमें दैविक व आसुरी शक्तियां हैं। दोनों को मिलाकर जब तक हृदय में क्षीरसागर मंथन नहीं किया जाएगा तब तक अमृत कुम्भ हाथ नहीं लगेगा। हमारे शरीर रूपी कुम्भ में जो आत्मा रूपी अमृत है उस अमृत को खोज निकालना ही समुद्र मंथन है।

 गुरुकुल कांगड़ी हरिद्वार के पूर्व आचार्य एवं उपकुलपति महामहोपाध्याय प्रोफेसर वेदप्रकाश शास्त्री जी कुम्भ पर्व को मानव संस्कृति का संरक्षक मानते हैं। विद्वानों द्वारा कुम्भ का निर्वचन पद्धति से किया गया अर्थ हृदयग्राह्य है- 

 कु: पृथिवी उम्भयतेऽमुगृह्यते उत्तमोत्ममहात्मसड्गमै: तदीय हितोपदेशै: यस्मिन् स कुम्भ:।। 

 अर्थात् महात्माओं के सामीप्य तथा उनके सदुपदेशों द्वारा पृथ्वी अनुग्रहीत होती है। इसी कारण उसे कुम्भ कहा जाता है। अथर्ववेद के काल सुक्त में पूर्ण कुम्भ का संकेत प्राप्त होता है। एक मंत्र में कुम्भ को तीन लोकों का पालक कहा गया है जो संसार में व्याप्त है और इससे बढ़कर कोई तेज नहीं है। इस प्रकार व्याप्त कालचक्र को पूर्ण कुम्भ कहा गया है। वह बारह राशियों में होता हुआ पूर्ण होता है। अतः पूर्ण कुम्भ का समय बारह वर्ष निर्धारित किया गया है। 

 पूर्ण कुम्भोडधिकाल अहितस्तं वै पश्यामौ बहुधानु सन्त:। 

स इमा विश्र्वाभुवनानि प्रत्यड्•कालम् समाहित: परमे व्योमन्।। अथर्ववेद १९, ५३, ३ 

 अथर्ववेद के एक अन्य मंत्र में कुम्भों को चार स्थान पर रखने का वर्णन प्राप्त होता है—- 

 चतुर: कुम्भाश्र्चतुर्धा ददामि, क्षारेण पूर्णों उदकेन दध्ना। एतास्त्वाधारा उपयन्तु सर्वा:, स्वर्गे लोके मधुमत्पिन्वमाना:। 

 वर्तमान में कुम्भ पर्व का इतिहास स्कन्द पुराण से प्राप्त होना बताया गया है। जिसमें समुद्र मंथन का वर्णन और अमृत कलश की कथा कही गयी है। कहा जाता है कि समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत कुम्भ की रक्षा का भार चार देवों पर था। चन्द्रमा ने गिरने से, सूर्य ने फूटने से, गुरु बृहस्पति ने दैत्यों के अपहरण से और शनि ने इन्द्र के लोभ भय से घट की रक्षा की। अतः इन ग्रहों के संयोग से कुम्भ पर्व की तिथियाँ निर्धारित की जाती हैं। कुम्भ चार जगह आयोजित किए जाते हैं परन्तु प्रयाग तीर्थ राज के कुम्भ पर्व स्नान को सर्वश्रेष्ठ बताया गया है— 

 सहस्त्रं कार्तिके स्नान माने स्नान शतानि च। 

बैशाखे नर्मदा कोटि: कुम्भ स्नानेन तत्फलम्॥ ( स्कन्द पुराण)  

विष्णु पुराण में भी इसका महत्व बताया गया है—

 अश्वमेध सहस्त्राणि वाजपेय शतानि च। 

लक्षं प्रदक्षिणा भूने: कुम्भ स्नानों न तत्फलम्॥ 

 डॉ योगेन्द्र नाथ शर्मा अरूण के अनुसार पूर्ण कुम्भ जनआस्था का हिमालय पर्व है। विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद में इसका वर्णन मिलता है— 

 जघान वृत्तं स्वधितिर्वनेवरूरोजपुरी अरदन्न- सिन्धन। 

विभेवगिरि नवभिन्न कुम्भभागा इन्द्रो अकृतगता स्वयुग्मि:॥ 

अर्थात् कुम्भ पर्व में जाने वाला मनुष्य स्वकृत कर्मफल स्वरूप होने वाले स्नान दान तथा होम आदि कर्मों से काष्ठ को काटने वाले कुठार की ही तरह अपने पापों को काट देता है। उपरोक्त सभी विद्वानों एवं शास्त्रों में दिये गये साक्ष्यों से पता चलता है कि कुम्भ का अस्तित्व ऋग्वेद काल से भी पूर्व का है। समुद्र मंथन से उपजे अमृत व विष हमारी सकारात्मक व नकारात्मक सोच के परिचायक हैं। सन्त समागम ज्ञान चर्चा सत्संग से प्राणी नकारात्मक चिंतन यानि विष का त्याग कर सकारात्मक यानि अमृत प्राप्त कर सकता है। कुम्भ का खगोलीय आधार पर निर्धारण ही बारह वर्ष में महाकुंभ का कारण बनता है।

 — डॉ. अ. कीर्तिवर्द्धन 

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