जीवन्तता की सीख देते-ओशो
अभी तक जितना पढ़ा है। मुझ जैसे अल्पज्ञ व अज्ञानी को अधिक अनुभव व ज्ञान भी नहीं है। पढ़ने का बहुत अधिक अवसर नहीं मिला, जो मिला उसे समझदार होने के अहंकार में गँवा दिया। उसके बावजूद जो भी सीखने व समझने का अवसर मिला। उसमें यही मिला कि जीवन में सुख है नहीं; जीवन से बाहर सुख की खोज करनी है। सुख के क्षणों में लिप्त हुए तो नर्क में जाना पड़ेगा। अपने आपको प्रबुद्ध समझने व प्रदर्शित करने वाले व्यक्तित्वों से जितना सुना है। उसका सार है कि जीवन क्षणभंगुर है, निस्सार है, दुःखपूर्ण है। हमें किसी अज्ञात लोक के सुख के लिए साधना करनी है। तपस्या करनी है। अपने जीवन को नष्ट किए बिना मुक्ति संभव नहीं है। जीवन में सुख की बात करने वाले बहुत कम विचारक मिलते हैं।
सुख की बात कहीं मिलती है तो वह विवादास्पद दर्शन है-चार्वाक दर्शन। जिसे विद्वानों ने कभी सम्मान के भाव से नहीं देखा। उनका कोई प्रामाणिक साहित्य नहीं मिलता। उनका जो विचार मिलता है, उनकी आलोचनाओं में से ही खोजना पढ़ता है। बताया यह जाता है कि उनके साहित्य को नष्ट कर दिया गया। इस प्रकार की असहिष्णुता का उदाहरण कि किसी विचार का इस स्तर तक विरोध कि उस विचार के साहित्य को ही नष्ट कर दिया जाय, विलक्षण है। वह विचार कितना मजबूत रहा होगा कि वह उसके बावजूद जिन्दा है।
चार्वाक के बाद इस विचार को जिन्दा रखने में सबसे अधिक योगदान उनके आलोचकों का ही माना जा सकता है। चार्वाक मौत की नहीं जीवन की बात करते हैं। दार्षनिकों के इतिहास में चार्वाक के बाद सर्वाधिक विवादास्पद व्यक्तित्व कहा जा सकता है, तो वह हैं-ओशो। चार्वाक के बाद जीवन की और जीवन्तता की बात करते हुए ओशो दिखाई देते हैं। चावार्क परमात्मा को नहीं मानते थे, किन्तु ओषों जीवन को ही परमात्मा के रूप में देखते हैं। वे प्रकृति के सौन्दर्य में ही परमात्मा की अनुभूति की बात करते हैं। चार्वाक भौतिक रूप से जीवन को जीने की बात करते हैं। सुख पूर्वक जीने की बात करते हैं। ओशो जीवन की सुन्दरता, जीवन के आनन्द को आध्यात्मिकता से जोड़ते हैं।
ओशो कहते हैं, ’आनन्द के अनुभव को वे लोग उपलब्ध नहीं होते, जो पीछे लौटकर देखते रहते हैं, वे लोग भी नहीं जो आगे की सोचते रहते हैं, केवल वे ही लोग जो प्रतिक्षण जीते हैं, प्रतिक्षण। जीवन में जो भी उपलब्ध है, प्रतिक्षण उसे पी लेते हैं और स्वीकार कर लेते हैं।…………….स्मरण रहे कि वर्तमान के क्षण के अतिरिक्त किसी भी चीज का कोई अस्तित्व नहीं है।’ ओशो और चार्वाक दोनों के साहित्य में वर्तमान पर जोर है। जीवन पर जोर है। जीवन के उपभोग पर जोर है। जीवन के आनन्द को रेखांकित किया है। वे किसी अज्ञात सुख के लिए वर्तमान सुख को त्यागने और जीवन से पलायन की सीख नहीं देते। जीवन को जीवन्तता के साथ, संपूर्णता के साथ जीने की सीख देते हैं।
ओशो कहते हैं कि जीवन के अंगूर खट्टे नहीं हैं, मीठे हैं। उन्हें प्राप्त करने के लिए छलांग बड़ी की जा सकती है। साधक छलांग बड़ी करने का प्रयास करता है। पलायनवादी एस्केपिस्ट कहता है – अंगूर खट्टे हैं और लौट जाता है। ओशो कहते हैं कि अंगूर खट्टे नहीं हैं। छलांग बड़ी करिए। जीवन हाथ में न आता हो तो हाथ बढ़ाइए। वास्तव में यही जीवन और संसार के विकास का आधार है। हमें ओशो के प्रति नकारात्मक भावना को त्यागकर उन्हें पढ़ना चाहिए। हम तभी जीवन को समझ व जी सकेंगे। ओशो ही हैं जो कहते हैं, ’मन का द्वार खोलें। समस्त आकर्षण के लिए द्वार खोल दें। जीवन के समस्त स्वाद के लिए द्वारा खोल दें। जीवन के प्रत्येक अनुभव में आनन्द की गहरी से गहरी खोज और आत्मलीनता खोजें, तल्लीनता खोजें और जीवन की जो मधुवर्षा हो रही है, उसमें डूब जाएं, उसमें एक हो जाएं, उससे जुड़ जाएं, उसके और अपने बीच कोई फासला न रखें।’
ओशो ही हैं जो संभोग से समाधि की बात करते हैं। ओशो ही हैं जो जीवन के आनन्द को लेते हुए परमात्मा की बात करते हैं। ओशो ही हैं जो संसार में रहते हुए मुक्ति की बात करते हैं। ओशो ही हैं जो कह सकते हैं, ’जीवन के सागर में बह जाएं, तो स्मरण रखें कि वह सागर अंततः परमात्मा तक ले जाने वाला बन जाता है।’ ओशो किसी भी विचार का विरोध नहीं करते वे ईसा को भी स्वीकार करते हैं, वे बुद्ध को भी स्वीकार करते हैं, वे मौहम्मद को भी स्वीकार करते हैं, वे राम और कृष्ण को भी स्वीकार करते हैं। सब जीवन के अंग हैं। सबको स्वीकार करना ही जीवन है। जीवन परमात्मा की और ले जाता है। जीवन को तीव्रता के साथ जीने की सीख ओशो देते हैं। जीवन की जीवन्तता का पर्याय ही ओशो दर्शन है।