गीतिका – धूल लदी मन पर है भारी
सब कुछ बदल रहा क्षण-क्षण में।
प्रभु का वास यहाँ कण-कण में।।
शांति नहीं मानव को प्यारी,
जुटा हुआ पल – पल वह रण में।
कलियों का विकास सुमनों में ,
सुमन व्यस्त हैं रस – वर्षण में।
धूल लदी मन पर अति सारी,
झाड़ रहा है मुख दर्पण में।
मानव डूबा अहंकार में,
आग धधकती मन के व्रण में।
जनक -जननि की सेवा कर ले,
लगा न जीवन अपना पण में।
‘शुभम्’ सोच संकीर्ण अशोभन,
किंचित शांति नहीं जनगण में।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’