मकर संक्रांति की यादें
मकर संक्रांति हमारा प्यारा त्यौहार है। हल्की हल्की ठंड का गुलाबी मौसम।
रंग बिरंगी पतंगों से सजा आकाश।
एक तो हमें तिल की चिक्की, तिलपापङी, गजक, रेवडी बहुत ज्यादा पसंद हैं। सर्दी के मौसम में तिल, गुड, सूखे नारियल के बुरादे से बना ‘भुगा’ बड़ा ही स्वादिष्ट लगता हैं।
महाराष्ट्र में हमारा जीवन बीता। यहां मकर संक्रांति के अवसर पर अडोसी पडोसी को तिलगुल देकर ‘ तिळगुळ घ्या, गोड गोड बोला’ का अनुनय किया जाता है।
‘हल्दी कुमकुम’ याने विवाहित महिलाओं आमंत्रित कर हल्दी कुमकुम लगाकर भेंट वस्तु और तिलगुल देकर सम्मानित किया जाता हैं। महिलायें, लड़कियां सजधजकर आती हैं। हमारी गौरवशाली परंपरा है यह। उत्सव का उल्लास मन को तरोताजा करता है।
विविध, रंग बिरंगे पुष्प सजी हैं हमारी संस्कृति। अनेकता में एकता का संदेश देती सांस्कृतिक विरासत।
जब हम दिल्ली में थे, हमने लोहड़ी मनाई, खूब रेवडी खायी। दक्षिण में पोंगल का आनंद लिया। किसी न किसी रूप में उत्सव प्रेमी हम सबके आनंद उत्सव बडे प्यार से मनाते हैं।
हमारी माताजी मकर संक्रांति के दिन सूरज भगवान की पूजा करती थी। तुलसी जी की गीली मिट्टी से मांडणा
करती थी। मकई के ‘बांकले’ ( भुट्टे के सूखे साबुत दानों को उबालकर बनाया जाता है। घी, गुड़ तिल का भुगा डालकर खाया जाता है।)और गुड़ तिल का प्रसाद चढ़ाती थी।
भुगे की रोटी बनाती थी। हम भी रोटी बेलकर भुगा (तिल गुड़ साथ में कुटकर बनाया जाता है) भरते और भरवा रोटी बनाने की कोशिश करते। लेकिन गुड पिघलकर कहीं न कहीं से बाहर निकलता और तवे पर चट चट, सूं सूं करता फैलकर हमें चिढाता। खाने में इतना मजा आता, याद कर मुंह में पानी आ रहा है।
आज-कल सबकुछ रेडीमेड का जमाना है।
न गुड की खुशबू से घर महकता है, न ही तिल की महक दिल में मिठास भरती है। रिश्तों की बगिया न जाने क्यों रंगहीन सौरभ हीन, नीरस हो रही है।
आओ सखा, लौट चले जहां जिंदगी सहज, सरस, सरल थी। न आपा धापी, न भागम भाग थी। जोश था, जीवन में प्रेम रस नमीं थी। जीते थे हम भरपूर। अपनों का साथ भी था।