रद्दी का मोल
बचपन से शौक था उसे पढ़ने का,
नई इबादत गढ़ने का,
हरपल आगे बढ़ने का,
हर परिस्थिति से लड़ने का,
मगर समय निकलता गया,
चुनौतियां आता गया नया,
वो अड़े थे बड़े पद के ख्वाब में,
ठसक आ चुका था रुआब में,
नहीं अपनाया चाह से कोई छोटा पद,
जेब भी अब नहीं कर रहा था मदद,
थक हार कर बन गया बाबू,
मगर दुनिया का चलन हो चुका था बेकाबू,
समझौते कर परिस्थितियां कबूला,
किताबों को भूला,
अब उन्हीं ज्ञान भरी किताबें को
मन नहीं कर रहा था रख सहेजने का,
निर्णय ले लिया उस रद्दी को बेचने का,
ले गया उसे एक किशोर खरीददार,
जिन्हें था किताबों से असीम प्यार,
और लग गया मन लगाकर पढ़ने,
समय लगा गुजरने,
चार साल बाद वह किशोर आया सामने,
फूल माला दे सब लगे हाथ थामने,
पहचान उसने उस बाबू को बोला
समय ने मेरा इम्तिहान लिया,
लेकिन आपने बहुमूल्य किताब दिया,
आपने कचरा समझ हटा दिया रद्दी,
जिन्होंने दिला दिया मुझे गद्दी,
भूल गया हूं वक्त के हिसाबों को,
ताउम्र नहीं भूलूंगा उन किताबों को।
— राजेन्द्र लाहिरी