कभी गंगा कभी जमुना कभी पंजाब हो जाऊँ!
यही जी चाहता है बस इन्हीं खेतों में खो जाऊँ
इसी मिट्टी में रम जाऊँ इसी दुनिया में खो जाऊँ
इसी आबोहवा में हो हमारे गाँव की बरकत
इसी मिट्टी में लहराए सुनहरे धान की बाली
यहीं गेहूँ यहीं गन्ना यहीं फसलों का मेला हो
कि खुश हो जाए मन बेहद, ये मिट्टी देखकर काली
यही ख्वाहिश है जीवन में इसी की गोद में खेलूँ
मुहब्बत के दरीचों में यही अहसास बो जाऊँ
कभी सीटी बजाती रेल कोई गाँव से गुज़रे
यहीं पर खेलते बच्चों के साये पास में बिचरें
हमेशा ही बुजुर्गों से रहें गुलज़ार चौपालें
यहीं पर आयतें चौपाइयाँ सब साथ में बिहरें
यहां पर सभ्यता का जल बहे कलकल कहीं छलछल
कभी गंगा — कभी जमुना कभी पंजाब हो जाऊँ
— ओम निश्चल