आजाद परवाज
मैं आजाद स्वछन्द परवाज
नहीं चाहिये बंधन का रिवाज
उड़ मड़राता नीले गगन में
अपने जीवन में खुश मगन हैं
ना किसी की चाकरी है पसन्द
ना ही चापलुसी से है सबंध
कोई कुछ कहता कहने दो ना
अपनी धुन में चलने दो ना
जहाँ ना मिलता हमें सम्मान
दूर से करता हूँ मैं उन्हें सलाम
इज्जत देना हमारी है संस्कार
घर से मिला है यह संसार
जैसा दिखेगा अन्य का व्यवहार
वैसा पेश आऊंगा मैं हर बार
नहीं चाहिये छल का त्यौहार
प्रेम करूणा दिखलाता सौ बार
नहीं लेता हूँ मूरख से कोई पंगा
ना फितरत है अपन में दंगा
जीयो खुद भी और जीने दो यार
चार दिन की है यह जग संसार
— उदय किशोर साह