ग़ज़ल
वो हमें देने तभी ताने लगे।
खूब हम पर ही सितम ढाने लगे।
सोच हमको ही बना अपना लिया।
फिर हमें ही देख शर्माने लगे।।
बन गयी दास्तां अभी तो ज़िंदगी।
रोज़ धीरे वो मुस्कुराने लगे।
वो नदी के ही किनारे थे तभी।
जो चली कश्ती हमें भाने लगे।।
जो सुबह चलती रही ठंडी हवा।
वो निकल बाहर हर्षाने लगे।।
ज़िंदगी तन्हा न हो अब तो कभी।
ये कहा जब आज मस्ताने लगे।।
हम सदा हँसते रहें खा चोट ही।
वे लिपट ही आज लहराने लगे।।
— रवि रश्मि ‘अनुभूति’