राग – रंग की वसंत ऋतु
प्रकृति ने हमें पूरे वर्ष में छह सुखद ऋतुओं का उपहार दिया है। प्रत्येक ऋतु की अपनी विशेषता और महत्ता है। इनमें से एक राग – रंग की ऋतु ‘वसंत ‘है। यह हिन्दू महीने फाल्गुन,जिसे हिन्दू वर्ष का अंतिम मास माना जाता है, की शुक्ल पक्ष की पंचमी से प्रारम्भ होकर अगले वर्ष के प्रथम मास चैत्र पर समाप्त होती है। यह आंग्ल वर्ष के फरवरी और मार्च के मासों में होती है। ऋतु परिवर्तन के अंतर्गत इसको वसंत ऋतु कहते हैं। इसको ऋतुओं का राजा अर्थात ऋतुराज भी कहा जाता है। वसंत पतझड़ के पश्चात आता है और वह धरा के सौन्दर्य को द्विगुणित कर देता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार वसंत को कामदेव का पुत्र कहा गया है।
वसंत का सीधा – सा अर्थ है – सौन्दर्य। शब्द का सौन्दर्य, वाणी का सौन्दर्य, प्रकृति का सौन्दर्य, प्रवृत्ति का सौन्दर्य। वसंत का जब शुभागमन होता है. तब प्रकृति का आँचल मोहक पीताभा से खिल उठता है। जब कोयल की कूक कानों में मधुरस घोलती है और जब वाणी मधुरता का अमृत पान कराती है, तो सुनते – देखते ही पहला शब्द निकलता है वाह – – अद्भुत – – विलक्षण – – अनुपम। वास्तव में यही वसंत है।
वसंत में रंग – बिरंगे फूलों,कल – कल बहते झरनों,खिली – खिली प्रकृति और पेड़ – पौधों पर लहलहाते नए पत्तों की सुन्दरता मन प्रसन्न कर देती है। मनमोहक मादक हरियाली से भरपूर वासंती छटा प्रकृति की सुन्दरता बढ़ाने में अपना पूर्ण सहयोग करती है। पक्षियों के कलरव में मधुरता घोलती, कलियों पर भँवरों के मड़राने, तितलियों के स्वच्छंद रूप से उड़ने, खेतों में पीली – पीली सरसों के लहलहाने, आम के पेड़ों पर बौर आने से, सर्दी और गर्मी की मिलीजुली अनुभूति मधुरिम मादकता फैलाती है, जैसे साक्षात रति कामदेव को मिलन का निमंत्रण देती हो, जहाँ दूर – दूर तक दृष्टि की पहुँच हो, केवल यह प्रतीत होता है कि नयनाभिराम अद्भुत प्राकृतिक दृश्यों से जैसे प्रकृति ने इस धरा को धन्य एवं समृद्ध कर दिया हो।
भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है कि मैं ऋतुओं में वसंत हूँ –
ऋतूनां कुसुमाकरः (भगवद्गीता अध्याय 10 /35)
संस्कृत साहित्य के महाकवि कालिदास ऋतु संहार ग्रंथ में वसंत ऋतु का वर्णन करते हुए कहते हैं –
द्रुमा सपुष्पाः सलिलं सपदम् स्त्रियः सकामाः पवनः सुगन्धः।
सुखाः प्रदोषाः दिवसाश्च रम्याः सर्वप्रियं चारुतरं वसंते।।
अर्थात वृक्षों में फूल खिल गए हैं. जल में कमल खिल गए हैं, स्त्रियों में ‘काम’ जाग्रत हो गया है, पवन सुगन्धित हो गया है तथा संध्या सुहावनी और दिन लुभावने हो गए हैं।
वसंत ऋतु सृजन का गीत है और जीवन – शक्ति का संचार है। वासंती लोरियाँ और गान हमारे मस्तिष्क को शान्ति और प्रसन्नता के दिव्य सरोवर में गोते लगाने के लिए विवश कर देते हैं।
अतः राग – रंग का उत्सव मनाने के लिए वसंत ऋतु सर्वश्रेष्ठ ऋतु मानी गई है। इस ऋतु की मादकता तथा मोहकता के कारण ही इस विशेष ऋतु पर भारतीय संगीत में एक विशेष राग ‘राग वसंती ‘का भी सृजन किया गया है, जिसमें प्रेम और विरह के हृदयस्पर्शी संगीत का आनन्द लिया जाता है। इस ऋतु वसंत में शिवरात्रि और अनन्त ऊर्जा के साथ विभिन्न रंगों का त्यौहार होली भी मनाया जाता है। असम में मनाया जाने वाला बिहू, पंजाब में वैशाखी, उड़िया समाज का खड़ियाछुई, बंगाल समाज का हाथेकुड़ी,ईसाइयों का त्यौहार ईस्टर और गुडफ्राइडे, हिन्दुओं के प्रमुख त्यौहार वसंत पंचमी, राम नवमी, हनुमान जयंती आदि त्यौहार इसी वसंत ऋतु में मनाए जाते हैं। इस दिन मारवाड़ी समाज के लोग भोजन में केसरिया रंग का प्रयोग करते हैं। महिलाएं पीले रंग के वस्त्रों को धारण कर सरस्वती माँ की आराधना करती हैं। असम के लोग यद्यपि मांसाहारी होते हैं, फिर भी इस दिन वे खिचड़ी का सेवन कर जीव – रक्षा का संकल्प लेते हैं तथा स्कूल जाने वाली लड़कियाँ माँ सरस्वती के सम्मान में साड़ी पहनकर स्कूल जाती हैं।
वसंत ऋतु का प्रारम्भ माघ मास के शुक्ल पक्ष में पंचमी से होता है, आतःइसको वसंत पंचमी भी कहते हैं। इसी दिन विद्या की देवी माँ हंसवाहिनी, पुस्तक धारिणी सरस्वती की पूजा-अर्चना भी की जाती है। सरस्वती को वीणावादिनी, बागीश्वरी, भगवती,शारदा और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण वह संगीत की भी देवी हैं। वसंतपंचमी के दिन इनके जन्मोत्सव के रूप में भी मनाते हैं। इस दिन आस्थावान कवि, लेखक,नर्तक, गायक, वादक, कलाकार और रंगकर्मी अपनी इष्टदेवी के प्रति श्रद्थानत होते हैं।
सरस्वती के नाम में ही कल – कल करती सरिता है। सरस्वती की इसी सकारात्मकता और सरसता का नाम वसंत है। इस पर्व पर हर कोई अपने और आसपास के सरस वातावरण को देखकर रीझ जाता है, कलाकार अपनी रचना पर मोहित होता है. तो प्रकृति अपनी रचना पर। सरस्वती शब्द – सुर – संगीत की त्रिवेणी है, इसलिए वसंत पंचमी उनकी पूजा का दिन हो गया।
वसंत पंचमी के दिन का एक और विशेष महत्व है। इस दिन मूहुर्त के अनुसार एक स्वयं सिद्ध मुहूर्त है अर्थात इस दिन शुभ मंगल कार्य के लिए पंचांग शुद्धि की आवश्यकता नहीं होती। इस दिन नींव पूजन, वाहन खरीदना, व्यापार आरम्भ करना, सगाई और विवाह आदि मंगल कार्य किए जा सकते हैं। इस दिन होलिका दहन के स्थान का चयन कर वहाँ प्रह्लाद के स्वरूप अरंड की डाली भी स्थापित की जाती है।
कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की कालजयी कविता की निम्न पंक्तियाँ वसंत का मनोहारी रूप चित्रित करती हैं –
फूली सरसों ने दिया रंग,
मधु लेकर आ पहुँचा अनंग।
वधु – वसुधा पुलकित अंग – अंग।
हिन्दी के अल्पज्ञात कवि रामदयाल पाण्डेय ने लिखा था –
पिंकी पुकारती रही, पुकारते धरा – गगन।
मगर कहीं रुके नहीं वसंत के चपल चरण।
वसंत पंचमी हिन्दी साहित्य की अमर विभूति
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला ‘की जन्मजयंती भी है, उनकी माँ वीणावादिनी को समर्पित “वीणावादिनी वर दे “एक कालजयी रचना है, जिसका पाठ या गायन आज भी सारस्वत समारोहों में प्रस्तुत किया जाता है। इसका प्रारम्भिक चरण इस प्रकार है –
वर दे, वीणावादिनी वर दे ।
प्रिय स्वतंत्र – रव अमृत – मंत्र – रव
भारत में भर दे।
वर दे, वीणावादिनी वर दे।
वसंत मनुष्य के अंदर सौन्दर्य – बोध का पर्व है। मनुष्य के अंतस में सद्गुणों की कामना का उत्सव है। अतः हम अपनी सर्वश्रेष्ठ रचनात्मकता को अहंकार और मोह से मुक्त कराकर विशुद्ध संवेदना के धरातल पर खड़ा करें। प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करते हुए उसकी रक्षा करें और उसके उपहारों को कृतज्ञ भाव से अंगीकार करें। वसंत और वसंत पंचमी का यही सत्य – शिव – सुन्दर संदेश है। यही भारत का सनातनविश्वास है और भारतीयों की सनातन साधना का भी।
— गौरीशंकर वैश्य विनम्र