रहकर देखो कभी कच्चे मकानों में
क्या रखा है तपते मैदानों में
घूमकर देखो कभी सुनसान वीरानों में
करवटें लेते रहते हो पक्की हवेलियों में
रहकर देखो कभी कच्चे मकानों में
कण कण गर्मी से झुलस रहा
घूमने आ जाओ कभी पहाड़ों में
गर्मी में तो लगता स्वर्ग जैसा यहां
बहुत आनंद आता यहां जाड़ों में
गर्मी में जब हर तरफ बरसती है आग
घने जंगल देते यहां शीतल ठंडी हवा
पहाड़ों पर मिलता है अजीब सा सकूँ
कल कल बहती नदियां झरने लगती जैसे कोई दवा
पेड़ों से गिरते पत्ते खड़ खड़ करते आवाज
कुदरत मानो बजा रही कोई अद्भुत साज
भीनी भीनी आती उपवन से फूलों की खुशबू
देखने को मिलता प्रकृति का अलग ही अंदाज़
कच्चे घर में जहां होता था विश्वास और प्यार भरा
वहीं पक्के घरों में रहता है इंसान डरा डरा
रहना चाहते हैं एक दूसरे से दूर
सूख रहा रिश्तों का पेड़ जो रहता था कभी हरा भरा
— रवींद्र कुमार शर्मा