कविता
अजब सी कहानी है यहाँ हर शख्श की
मुस्कराहट के पीछे दर्द छिपाए है
बुलबुलों जैसी जिंदगी पर आवरण है
झूठ का जो सबको भरमाये है
आँख की कोरों पर आँसू न जाने क्यों
सितारों जैसा झिलमिलाए है
सब कुछ पास होकर भी मन न जाने
क्यों एक आस फिर भी लगाए है
दर्प है तुमको खुद आसमान होने का
धरती पर फिर भी कब्जा जमाए है
बंद मुट्ठी लाख की जानते हैं सब
फिर भी हाथ सामने फैलाये हैं
भुलाकर अहसान जो हुआ नाम उसका
इतिहास में कल दर्ज हो जाएगा
अपनों की जिम्मेदारी में जो शख्श
खुद को आज भी भुलाये है
— वर्षा वार्ष्णेय, अलीगढ़