कोल्हू का बैल
प्रशांत के आने की खुशी में हरि काका दो दिनों से लड्डू बांट रहे थे । सात वर्ष बाद प्रशांत भईया घर आ रहे थे । हरि काका मेरी भाड़े की गाड़ी ले कर स्वयं एयरपोर्ट पहुंचे ।
एयरपोर्ट से गाड़ी में बैठते ही भईया लैपटॉप खोल कर बैठ गये और कहने लगे- “बाबूजी आई टी वालों को कभी चैन नहीं, पिछले बीस घंटों में ना जाने कितने मेल आये होंगे , मैं जरा चेक कर लेता हूँ ।”
“बेटा पहले बताओ बहू और बच्चे कैसे हैं ? उन लोगों को तो मैं अब तक देखा भी नहीं हूँ । उन्हें भी साथ लाते तो हमें अपार खुशी होती ।”
“बाबूजी वक्त बदल गया है, घर-परिवार की खुशियां तलाशते हुए मेरी कमर टूट रही है । अब आप भी अपने बच्चों से आशा एवं अपेक्षा त्याग दें ।” ऐसा सुनकर हरि काका के चेहरे का रंग फीका पड़ गया । मैं अगली सीट पर बैठा ड्राइविंग करते हुए भी बैक-व्यू मिरर से उन दोनों बाप बेटे के चेहरे को पढने की कोशिश कर रहा था । पल-पल दोनों पिता-पुत्र के चेहरे के रंग बदल रहे थे ।
खामोशी में हरि काका की स्थिति दयनीय लग रही थी । मैंने स्थिति को संभालते हुए कहा– “चाचा जी पहले बीसियों मजदूर या हाकिम जिस काम को महीनों में भी नहीं कर पाते थे अब वही काम लैपटॉप पर एक ही आदमी को करना पड़ता है ।”
चाचा जी लंबी सांस भरते हुए बस इतना ही कहा- “ओह मुझे इसका ध्यान ही नहीं रहा ।”
पास में बैठे प्रशांत भईया पूछ बैठे- “आप कुछ कह रहे थे बाबूजी मैंने सुना नहीं ।”
“नहीं बेटा तुम अपना काम करो, हर दशक में कोल्हू के बैल नज़र आते हैं, फर्क सिर्फ इतना है कि, वक्त पॉलिस्ड कर उनका रंग-रूप बदल देता है ।”
— आरती रॉय