अधूरी
तुम्हें विदा तो करती हूँ
पर नहीं लौट पाती पूरा।
ऐसा कई दफे हुआ
जब भी तुम जाते,
ट्रेन का आखिरी डिब्बा
जब हरी झंडी दिखाता
ओझल हो जाता आँखों से।
जड़ चेतन सी वहीं ख़डी
भारी कदमों से वापसी
पर वापस आ कहाँ पाती पूरा?
थोड़ा थोड़ा खुद को खाली करती
पूरी की पूरी हो जाती खाली।
करवट लेती हुई बीती कई रातें,
ऑंखें करूँ बंद तो वही हरी झंडी
पीछा नहीं छोड़ती, कमबख्त।
उन बीते लम्हों को चुनती
बुन लेती उन क्षणों को।
कभी चाय की प्याली में
कभी पसारे तौलिये से
कभी बिना धुली हुई शर्ट से
समेट लेती हूँ तुम्हें इस तरह
जैसे तुम्हें विदा नहीं की,
तुम भी घुल जाते हो पूरी तरह।
अबकी प्रिये विदाई असम्भव
या फिर वापसी असम्भव।
— सविता सिंह मीरा