ग़ज़ल
जो हंस के जियोगे झमेला नहीं है,
ये जीवन की राहें है खतरा नहीं है।
चलेगें सदा साथ सुख- दुख हमारे,
सिवा इसके कोई भी रस्ता नहीं है।
कहो अपना कैसे कहें वक्त को जो,
हमारा ही होकर हमारा नहीं है।
न हो जो दुआओं से महफूज़ मांँ की,
मेरे घर में कोई भी कोना नहीं है।
उलझता है वो ही ज़माने से अक्सर,
इसे ठीक से जिसने समझा नहीं है
न समझो बुज़ुर्गों को उतरी नदी सा,
ये पानी कभी भी उतरता नहीं है।
ज़माना है बेहतर कहीं और तुझसे,
यहाँ तू ही बेहतर अकेला नहीं है।
ये नफ़रत, मुहब्बत, हक़ीक़त, सियासत,
समझता है ‘जय’ कोई बच्चा नहीं है।
— जयकृष्ण चांडक ‘जय’