कविता

महाकुंभ

सनातन के सभी उत्सव, रोज़गार बढ़ाते हैं,
मन्दिर निर्माण हुआ, रोज़गार पा जाते हैं।
धूप दीप चन्दन, पुष्पों का बाज़ार सजा है,
भोग प्रसाद की सजी दुकानें, धन कमाते हैं।

कहीं मन्दिर निर्माण हो रहा, मज़दूरों को काम मिला,
मेहनत करने वालों को, निज मेहनत का दाम मिला।
कुछ काम प्रत्यक्ष कर रहे, लाखों परोक्ष लगे हुये,
भरे हुये होटल बाज़ार सब, सन्तों को सम्मान मिला।

भगवा ध्वज गगन फहराया, धर्म का गौरव गान किया,
यातायात के बढ़ते साधन, नव रोज़गार निर्माण किया।
होटल स्कूल अस्पताल बनते, रोज़गार सृजन करते,
तीर्थ यात्रियों के आने से, धर्म क्षेत्र स्वर्ग समान किया।

तीर्थ क्षेत्र में आकर कोई, भूखा नहीं सो पाता है,
पास नहीं जिसके पैसा, प्रसाद खाकर सो जाता है।
जगह जगह भन्डारे सजते, वो भी रोज़गार गढ़ते।
धर्म राह चलने वालो को, तीर्थ क्षेत्र सदा भाता है।

संगम तट पर महाकुंभ, दुनिया आज अचम्भित है,
साफ़ सफ़ाई प्रबन्धन, दुनिया आज अचम्भित हैं।
सनातन विरोधी दहाड़ मारते, भक्त कहें हर हर गंगे,
ऋषि मुनि सन्त समागम, दुनिया आज अचम्भित है।

देवगणों पर अमृत वर्षा, राक्षस कुल व्यथित है,
हर हर महादेव का नारा, राक्षस कुल व्यथित है।
गंगा रेती पर महाकुंभ, सनातन का जय जयकार,
भगवा परचम फहराता, राक्षस कुल व्यथित है।

— डॉ अ कीर्ति वर्द्धन

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