भाषा-साहित्य

कविता की परिभाषा आज तक नहीं हो सकी

संस्कृत के आचार्यों ने काव्य के जो लक्षण बताए हैं, वे कविता के लक्षण नहीं हैं। बहुत से साहित्यकार इन्हें कविता के लक्षण मान बैठते हैं। सच पूछो तो आज तक कोई भी विद्वान कविता की सही और सटीक परिभाषा नहीं कर सका है। भारतीय व पाश्चात्य कई विद्वानों ने इस सम्बन्ध में अपने- अपने मत व्यक्त किए हैं, पर वे मात्र एक विचार बनकर रह गए हैं। ये विचार सर्वमान्य तो क्या बहुमान्य भी नहीं हुए।  कविता का क्या लक्षण है? यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित है। 

काव्य के तीन भेद होते हैं- गद्य, पद्य और चम्पू। इसी में साहित्य की सभी विधाएंँ समाहित हैं। कविता पद्य का रूप है और काव्य समग्र का। पहले काव्य और कविता के अन्तर को बहुत ही सरल उदाहरण से समझते हैं। जैसे हर बरगद एक वृक्ष तो है लेकिन हर वृक्ष बरगद नहीं होता। उसी प्रकार हर कविता काव्य तो होती है पर हर काव्य कविता नहीं होता। जब गद्य और पद्य में स्पष्ट भेद है तो कविता का लक्षण काव्य से पृथक ही होना चाहिए। इसीलिए कह रहा हूँ कि- कविता क्या है व कैसी होती है ? इस प्रश्न का कोई स्थाई समाधान जिज्ञासुओं को नहीं मिला है। 

कविता तो सरस्वती की मुखरा बेटी है, उसका जन्म न होकर अवतरण होता है। भारतीय संस्कृति से इतर संस्कृतियों में भी इसे लिखना सामान्य नहीं माना गया है। अँग्रेजी में इसे गॉड गिफ्ट माना जाता है। अँगरेजी में कविता का सन्दर्भ लिखते समय इसे “दिस पोइम इज कम्पोज्ड बाय जाॅन कीट्स” ऐसा लिखा जाता है “दिस पोइम इज रिटन बाय जाॅन कीट्स” नहीं लिखा जाता। यहाँ रिटन (लिखित) नहीं अपितु कम्पोज्ड शब्द का प्रयोग किया जाता है। उर्दू में भी इसे  इलहाम माना गया है। “यह ग़ज़ल कही है” “एक शे’र कुछ यूँ हुआ है” कहा जाता है। “यह ग़ज़ल लिखी है” या “एक शे’र कुछ यूँ लिखा है” नहीं कहा जाता। हिन्दी में भी इसे ईश्वरीय देन कहा जाता है। कविता का अवतीर्ण होना ही इसे अवतरण बनाता है। अन्त में हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कविता लिखी नहीं जा सकती। कविता से इतर काव्य की विभिन्न विधाओं के रचनाकारों को उपन्यासकार, कहानी कार, नाटकककार, कलाकार आदि संज्ञाओं से पुकारा जाता है वहीं कविता के रचनाकार को कविताकार नहीं कहा जाता है अपितु कवि की संज्ञा से विभूषित किया गया है। यहाँ तक कि कलमकार या लेखक भी नहीं कहा जाता है। रही बात धर्म निरपेक्ष कलमकारों की तो जो ईश्वर में आस्था नहीं रखते ऐसे में वे इसे गाॅड गिफ्टेड कैसे मानेंगे?

कविता अवतरण है तो फिर एक कवि दिए गए विषयों पर रचना कैसे कर देता है? तत्काल समस्या पूर्ति कैसे कर देता है? आशुकविता कैसे हो जाती है? आपके मन मस्तिष्क में इस तरह के प्रश्न उठना स्वाभाविक हैं। इसके उत्तर में कहना चाहता हूँ कि- दक्ष कवियों को अभ्यास और अनुभव के द्वारा कविता को अवतरित कराने की अद्भुत क्षमता स्वत: प्राप्त हो जाती है। वे शब्दों और भावों में गहरे डूबने की शक्ति प्राप्त कर चुके होते हैं। उनके भाव आह्वान की सहायता से उद्वेग साकार होकर प्रकट होता रहता है।

 कविता में भाषा का सौंदर्य, नाद का निनाद और अर्थ का गाम्भीर्य रहस्यमय होता है। इसमें भाव की अद्भुत संप्रेषणीय शक्ति होती है, जो रोचक और सरस होने से सीधे हृदय में उतरती है और आत्मा को जाग्रत करती है। कविता सत्य को सुन्दर बनाते हुए शिव ( कल्याण) की भावना को पोषित और अभिव्यक्त ही नहीं करती अपितु जीवन को अर्थ भी देती है। कविता ही जीवन की गहराई को व्यक्त करती है। जटिल होने के कारण इसकी व्याख्या ही इसकी व्यापकता को उजागर करती है। सरल होने के कारण यह कण्ठ की सहज शोभा बन जाती है। कवि अपनी अनुभूति, भावना, रूप, लय,अर्थ और संदेश को व्यक्त करने के लिए शब्दों का चयन और विन्यास तो करता है लेकिन उसे कल्पना लोक की यात्रा करनी पड़ती है।

विश्व के विद्वानों में कविता की उपयोगिता के विमर्श पर उसके खण्डन व मण्डन होते रहे हैं। प्लेटो जैसे दार्शनिक समाजशास्त्री इसे समाज के लिए आवश्यक नहीं मानते वहीं भारतीय विद्वानों ने इसकी महती आवश्यकता पर बल दिया है। यहाँ एक बात और बताना चाहूँगा कि कवि तथ्यगत सत्य को सुन्दर बनाने के लिए भावों में काल्पनिक संवेदना का आलोढ़न भी करता है वहीं कविता को शब्द शक्तियों रस छ्न्द अलंकारादि से शृंगारित भी करता है तब सत्य प्रभावित होता है और वह कथन पूर्ण सत्य नहीं रह पाता। प्लेटो ने शायद इसलिए भी कविता को समाज के लिए  आवश्यक नहीं माना है। अतः प्लेटो ने समाज में कविता की उपस्थिति का खण्डन किया है वहीं उनके शिष्य अरस्तू ने कविता के शिवत्व (हितकारी पक्ष) को स्वीकारते हुए उसे समाज के लिए अति आवश्यक माना व उसकी महिमा का मण्डन किया है।

हाजिर जबाबी, वाक्चातुर्य, क्रमबद्ध आलेखन, संगीत में अगेय को गेय की तरह प्रस्तुत कर देना, स्मृतियों के बल पर त्वराशक्ति का आब्रजन, मिमिक्री, प्रत्युत्पन्नमति प्रभा आदि शक्तियाँ तो कथन की तीक्ष्णता के तेवर की जननी हैं। ये अवतरण न हो कर स्थिति पर उपजे आवेग के प्रवाह मात्र हैं। इन तेवरों से सम्पन्न आभा का मण्डल बनाना कविता के कवि की पहचान का स्थाई लक्षण नहीं हो सकता। अत: विद्वत्ता की समकालीन आभा का आतंक भले ही किसी तथाकथित कवि के मन में महाकवि होने के भ्रम का संचरण कर दे फिर भी वह कुछ समय के लिए ही होगा। वह चिरकाल के लिए कविता का कवि नहीं हो सकता। 

शब्द ब्रह्म है तो कविता ब्रह्मनादिनी है। वह समूचे साहित्य का अर्क होती है। काव्य अंशी है ‌तो कविता उसका अंश होती है। इसका आशय यह नहीं कि कविता का कद लघुतर है। सूत्रबद्ध होने से सन्दर्भ और प्रसंग सहित इसकी व्याख्या विशद हो जाती है। कविता के अस्तित्व और उसकी श्रेष्ठता का वर्चस्व हर युग में रहा है। कविता का क्षेत्र बहुत विस्तृत है तो प्रभाव भी विश्वव्यापी है। इसीलिए गद्य के कई विद्वान लेखकगण काव्य के कवि होते हुए भी मन में कविता के कवि होने की प्रच्छन्न चाह रखते हैं। तथाकथित कविता को छोड़ दें तो असली कविता का एक गुण यह भी है कि यह अत्यन्त सहज है और वहीं वही कविता अति गूढ़ भी।  अनुभूति और अभ्यास की पराकाष्ठा में समाधिस्थ कवि के मानस से कविता का आविर्भाव होता है, यह अवतरण है, यह सृजन नहीं है। वह गार्भिकी न होकर हार्दिकी व बौद्धिक है। गाली से लेकर आमन्त्र रसवर्षा अलंकार प्रक्षेपण, छ्न्द बन्धन आदि इसे भव्य और दिव्य बनाते हैं। यथास्थिति शब्दशक्तियों‌ का आलोढ़न विषय की गम्भीरिमा में चार चाँद लगाता है। इन्हीं अनगिनत विशेषताओं के कारण ही कविता को छोटी-मोटी परिभाषा में नहीं बाँधा जा सकता है। सम्भवतः इसी कारण कविता को आज तक परिभाषित नहीं किया जा सका है।

छ्न्द हीन विचारों के संयोजनकर्ता नई कविता के पक्ष में मिथ्या और  अविश्वसनीय तर्क देते हैं। अधिकांश के अनुसार आज की कविता तो प्रगति शील होकर नए रूपों में आई है। इसे समाज में व्यापक समर्थन प्राप्त है। पाठक और श्रोता इससे अभिभूत हैं। गीत मर गया है। छ्न्द जीवित नहीं है। पुराने घिसे पिटे परम्परागत कवियों की कविता को कोई सुन ही नहीं रहा है। सूर, तुलसी, मीरा, रैदास पर धार्मिक होने का आरोप लगाकर उनके काव्य को कविता से खारिज करते हैं। 

परम्परागत विद्वानों की दृष्टि में छन्द मुक्त रचनाओं को काव्य तो कहा जा सकता है किन्तु कविता कहना नासमझी होगी। जैसे हाथी के आकार में रँगे चित्र को अश्व नहीं कहा जा सकता और न ही घोड़े की पीठ पर बैल का ठाँठा लगा देने से वह बैल हो जायेगा। जैसे बिना आवरण के चावल की बीज शक्ति समाप्त हो जाती है। वैसे ही छ्न्द मुक्त रचना की रोचकता समाप्त हो जाती है। कोई जीव बिना आवरण के नहीं हो सकता। गुण, धर्म, रूप और आवरण के पृथक् होने से सम्बन्धित हर वस्तु या जीव की पहचान और नाम भी पृथक् ही हो जाता है। गेंहूंँ को गेंदा नहीं कहा जा सकता। फिर काव्य को कविता कैसे कहा जा सकता है।

वास्तविकता तो यह है कि छ्न्द से मुक्त  भाव को कविता के रूप में स्वीकार करना कविता के मूल तत्वों से भटकाव का संकेत है। हांँ इस प्रकार के काव्य का सृजन करने वाले को काव्य का कवि होना तो स्वीकारा जाता है, परन्तु उसे कविता का कवि नहीं माना जा सकता।

कविता के प्राकृतिक कवि प्रायः निश्छल होते हैं। भोलापन उनको उद्वेलित नहीं होने देता। उन पर कविता का नशा चढ़ा हुआ रहता है। उनका फक्कड़पन, अक्खड़पन, अपनी मस्ती में मस्त रहने की प्रकृति और जुनूनी दीवानगी उन्हें समाज में विशिष्ट बनाती है। वे सीधे सादे होते हैं, चालाकी उनमें औसतन नहीं पाई जाती व अवसरवादिता की समझ भी उन्हें नहीं के बराबर होती। वे सुहृद होते हैं इन्हीं गुणों के कारण वे किसी का लाभ नहीं ले पाते और हमेशा के लिए पीछे रह जाते हैं। यह साधु प्रकृति सभी में पाई जाती हो ऐसा भी नहीं है किन्तु अधिकांश में उक्त सद्गुण मिलते ही हैं वहीं तुलना करने पर हम पाते हैं कि अधिकांश विद्वानों में चालाकी पाई जाती है वे अवसरवादी भी होते हैं। देखने में तो बहुत सीधे-सादे लगते हैं किन्तु ये इतने भोले होते नहीं हैं। हाँ ये दुर्गुण सभी विद्वज्जनों में नहीं मिलते। फिर भी कुछ में मिलेंगे और इन्हीं कुछ के कारण सभी लपेटे में आ जाते हैं।

 स्वतन्त्रता प्राप्ति के कुछ समय बाद से ही देश के पारदेशीय साम्य सोच के विद्वानों की आभा ने छल बल से सरकारी संस्थानों अखबारों और मीडिया पर अपना ऐसा प्रभाव बना लिया था कि कविता को कविता न रहने दिया। इसे नई कविता का नाम दे दिया गया। नई कविता में गेयता, तुक, छ्न्द आदि को कोई स्थान ही नहीं था। लयबद्धता को स्वीकार तो किया किन्तु भावों के बन्धन से प्रायः लय लुप्त ही रही। परिणाम यह हुआ कि गद्य ही तथाकथित कविता हो गया। संगीत का फीडबैक ही समाप्त सा कर दिया गया।इस प्रकार जितने भी गद्य के विद्वान थे, वे कविता के कवि बन बैठे। जो कवि नहीं थे, उन्हें असली कवि होने के अघोषित प्रमाण पत्र दे दिए गए। सरकारी पुरस्कारों सम्मानों पर इनका नियन्त्रण हो गया। कौओं की कांँव-काँव को कोयल की किलकारी से अधिक कर्णप्रिय माना गया। गेयता शिथिल पड़ गई, संगीत विषाद में आ गया और वह कबीर मीरा सूर तुलसी तक को ही संगीत बद्ध करता रहा। वास्तविक कवि अपनी साधना में खो गए। यद्यपि आज भी कमोवेश स्थिति वही है और कुछ उच्च निर्णायक पदों पर पदस्थ विद्वान अधिकारी साहित्य की श्रेष्ठता पर नहीं अपितु अपने आत्मीय सम्बन्धों पर ध्यान देते हैं और अपनों को ऑब्लाइज करते रहते हैं।

आज सोशल मीडिया का समय है। मौन मुखर हो चुका है। बिगड़े राग बन रहे हैं। प्रचुर मात्रा में छन्दों का अवतरण हो रहा है। गायन को आधार मिलने से संगीत को ऊर्जा मिली है।  आशा की किरण पुनः ऐसी जगी है कि जब तक मनुष्य में संवेदनशीलता हृदयस्थ है तब तक कविता को अँधेरी रात का सामना नहीं करना पड़ेगा अवतरण होता ही रहेगा और होना भी चाहिए। 

— गिरेन्द्रसिंह भदौरिया “प्राण”

गिरेन्द्र सिंह भदौरिया "प्राण"

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