बुजुर्गों की सीख
बुजुर्गों की सीख कितनी लाभदायक होती है, शायद हम में से हर एक जानता होगा! जन्मते ही माता-पिता, बड़े भाई-बहिन आदि कभी इशारे से, कभी मौन रहकर, कभी डांट-फटकार और कभी लाड़-प्यार से बहुत कुछ सिखाते हैं. हम गिर जाते थे तो मम्मी कहती थीं- “कुछ नहीं हुआ, देखो चींटी मर गई!” अब चींटी होती तो मरती न! पर हम चींटी को ही ढूंढते रह जाते थे और गिरने की चोट-दर्द को भूल जाते थे. आज भी वह सीख हमारे काम आ रही है और गिरते-पड़ते हम चोट-दर्द को भुलाए रखते हैं.
मम्मी की ही एक और सीख है, जो हमारे जीवन का हिस्सा बन गई है. मम्मी मसाले-चीनी-गेहूं का आटा आदि जब डिब्बे में भरती थीं, तो थोड़ा-सा पैकिंग में बचा लेती थीं और लिस्ट में लिख भी देती थीं, ताकि अगर किसी कारण वह चीज नहीं भी आ पाए तो भी बची हुई चीज से 1-2 बार का काम तो चल ही जाता है. बाद में हमें इस सिद्धांत को एम.बी.ए में “पुनः आदेश बिंदु” यानी “रिऑर्डर प्वाइंट” के रूप में पढ़ाया गया था.
बुजुर्गों की सीखें तो अनेक हैं, पर शब्द-सीमा के कारण हम पिताजी की केवल दो सीखों का ही उल्लेख करेंगे. पिताजी कहा करते थे- “ख़ुशी के खजानों को सदा याद रखो तो मन का रोना समाप्त हो जायेगा.”
आपने देखा होगा कि हमारी रचनाओं में सकारात्मकता की स्पष्ट झलक होती है, जो पूजनीय पिताजी के इस कथन का ही सुपरिणाम है.
अगर हम गणित का कोई सवाल हल करने में अटक जाते थे तो पूजनीय पिताजी कहा करते थे कि “अभी इसको छोड़ कर किसी और काम में लग जाओ या सो जाओ, सवाल अपने आप हल हो जाएगा.
आज भी हम किसी काम में अटक जाते हैं, तो तुरंत उसे छोड़कर किसी और काम में लग जाते हैं या सो जाते हैं. मन में वह बात उमड़ती-घुमड़ती रहती है और अक्सर अपने आप उसका हल मिल जाता है.
माता-पिता की तरह अध्यापकों-गुरुओं की अच्छी सीख भी हमारे मन में छप-सी जाती है. आज से 60 साल पहले 1 जुलाई 1965 को हम जब टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज में गए तो हमारी ड्राइंग-अध्यापिका ने बहुत सुंदर सुलेख में श्यापट्ट पर चॉक से लिखा था- “अगर आप सत्य बोलते हैं तो याद नहीं रखना पड़ेगा कि किसको क्या कहा था?” बस, वही बात हमारे जीवन का हिस्सा बन गई और आज तक हमें अवसाद से बचाए हुए है.
बुजुर्गों की सीखें हमारे जीवन का हिस्सा हैं.
— लीला तिवानी