मन की पतंग
मन की पतंग ऊंची उड़ना चाहे,
जिधर चाहे उधर ही मुड़ना चाहे,
देखो तो मगर पतंगकीउड़ान,
अपनों से ही हरदम जुड़ना चाहे!
अपने तो फिर भी अपने होते हैं,
बाकी सब तो सपने ही होते हैं,
रिश्तों की डोर से बंधी उड़े पतंग,
वरना सपने बस खपने होते हैं!
सौहार्द हो, नहीं कोई विवाद हो,
अखंडता का तुमुल निनाद हो,
देश में उड़े या फिर उड़े विदेश में,
शुभेच्छाओं से सराबोर संवाद हो।
उड़ती जाएगी मन की पतंग,
नभ छू जायेगी बन के मलंग,
उस पार होकर आयेगी फिर,
उत्तरायण-पर्वों को रंगती पतंग।
लड़ती-कटती, अड़ती-भिड़ती,
करती मगर दाता से विनती,
जड़ से जुड़ी रहे मन की पतंग,
अपनों में होती रहे मेरी गिनती।
— लीला तिवानी