कविता

समाज की लकीर!

देखती हूँ जिसे बंद पलकों से मैं,
एक धुंधली सी तस्वीर वो मेरी है,
बंद करने वाले हाथ भी नहीं मेरे,
शायद यही सदियों से तकदीर मेरी है!

यह समाज है या समाज की लकीर!
बना दिया है मुझे किस्मत का फ़कीर,
न कुछ देखूं, न कुछ बोलूं, न डोलूं,
पर चाहता है हर कोई मेरी ही उकीर!

सबकी सुनूं, सबके मन की करूं,
सबकी आकांक्षाओं के भंडार भरूं,
न देख सकूं अपने मन की चाहत,
तनिक झांकने से भी मैं निपट डरूं!

आंख बंद हो समाज की या फिर मेरी,
नहीं टल सकेगी संकट की रणभेरी,
आंख खोलने दो वरना जलेगी दुनिया,
‘गर नारी ने तनिक भी आंख तरेरी

— लीला तिवानी

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

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