चुनावी दाँव
जब विलुप्त प्राणी प्रकट हो
उनसे मुलाकाते झटपट हो
कुसुम सा वाणी झरने लगे
प्रचंड ग्रीष्म नीर बहने लगे
दर्द को मिले तुरंत मरहम
चोटिल घाव भी भरने लगे
तब समझना निमिषा छाँव है
यह एक चुनावी दाँव है ।
जब बंद जिब्भा खुलने लगे
देवता बनकर जन झुलने लगे
अनाम जिंदगी से बाहर निकल
निकट आकर हो जाए विकल
भलमनसाहत से अश्रु बहने लगे
गुण के विपरीत कर्म करने लगे
तो समझना अल्प बेर की नाव है
यह एक चुनावी दाँव है ।
जब माँग की पूर्ति होने लगे
जन-जन का मलिन पैर धोने लगे
हर गाँव-गली में भ्रमण करके
निज अधर पर मुस्कान धरके
कृपणो का हाल जानने लगे
टपरियों मे तिरपाल तानने लगे
दिखावटी भोज की भाव हो
तो समझना यह चुनावी दाँव है।।
— चन्द्रकांत खुंटे ‘क्रांति’