इस राह का राही सुधर गया
नहीं कर सकता मजबूर किसी को
मिशन की राह पर जाने को,
सुप्तावस्था में सोये समाज जगाने को,
इस राह में जागे जमीर वाले
खुदबखुद आ जाते हैं,
बिना किसी परवाह जागृति गीत गाते हैं,
सोये हुये शेरों को जगाते हैं,
नित्य नई धुन ले आते हैं,
नहीं होता किसी से शिकवा शिकायत
इस राह के चलते मलंगों को,
दे जाते हैं परवाज मन के उमंगों को,
भोलापन इतना कि कोई भी
इनका अपना नारा लगा
इन्हें बहका सकता है,
शून्य से शिखर तक जा सकता है,
बहकने की इसी अदा ने तो
इन्हें अंतिम पायदान पर ला रखा है,
खामियाजा ऐसा कि इस समाज ने
अब तक सत्ता का पूर्ण स्वाद नहीं चखा है,
स्वाद लेने वाले भरे पड़े हैं दलाल,
स्वार्थवश जो समाज का कराते हलाल,
ऐ वंचितों अब तो खुद को संभाल,
अपने तरकश से तीर निकाल और
इन बहुरूपियों और दलालों को
अपने पास से तक्षण हंकाल,
तुम्हारा सामाजिक विरोधी कभी भी
तुम्हें आगे नहीं ले जाएगा,
तुम्हारे राह कांटे बो कर
खुद चैन की नींद सो जाएगा,
तुम क्या सोचते हो पता नहीं
पर मैंने इन कठिन राहों पर पांव धर लिया,
मजबूर अभी भी नहीं करूंगा लेकिन
इस राह का हर राही खुद ही सुधर लिया।
— राजेन्द्र लाहिरी