गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

मेरे मन का आंगन तुम्हारा तुम्हारा
ये जीवन का प्रांगण तुम्हारा तुम्हारा

यहां तितलियों सी उड़ो और विचरो
ये बगिया ये उपवन तुम्हारा तुम्हारा

कोई तीर्थ है अपना मिलना भी जैसे
सकल यह भुवन है तुम्हारा तुम्हारा

खिलो वैजयंती सी आंगन में मेरे
ये दर्पण ये आनन तुम्हारा तुम्हारा

कोई भी न आंधी उड़ा इसको पाए
रहे संग चिरंतन तुम्हारा तुम्हारा

— ओम निश्चल

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