कविता

मैं हवा हूँ खुद ही बीमार हो गई

मैं हवा हूँ खुद ही बीमार हो गई
जब से हर तरफ ज़हर की भरमार हो गई
सुधरता कोई नहीं कचरा फैला रहे
बहुत कोशिश की पर लाचार हो गई

थोड़े से घास की लालच में
हरे भरे जंगल कोई जला रहा
अनाथ करके उजाड़ कर किसी का आशियां
अपने किये पर हंस रहा खुशियां मना रहा

खेतों में भी अब दवाईयों का छिड़काव हो रहा
कोई सब्जी फलों में इंजेक्शन लगा रहा
मन में सबके लालच है पैसा कमाने का
दूसरा मरता है तो मरे हमारे बाप का क्या जा रहा

पाली हाउसों में जो कुछ पैदा हो रहा
खाकर आम आदमी इस ज़हर को बीमार हो रहा
कैंसर जैसा घातक रोग कर रहा लाचार
लालची इंसान हंस रहा भुगतने वाला रो रहा

फलों को भी देखो कैसे पकाया जा रहा
जहरीले जानलेवा घोल में डुबाया जा रहा
लगते है फल एकदम ताज़ा जैसे पेड़ से उतारे हों
अच्छा फल समझ कर वही खाया जा रहा

अन्न में भी कोई कम नहीं मीठा ज़हर
धीरे धीरे जो शरीर के अंदर समा रहा
किसी का लीवर किसी का गुर्दा खराब
आदमी बीमारियों का घर बनता जा रहा

हर आदमी चाहता है अपना घर अपनी कार
धुआं इतना कि सांस लेना हो रहा दुश्वार
घूमने चला जाता है दूर साफ सुथरे पहाड़ पर
लौट जाता वापिस वहां कचरे के लगा कर अम्बार

क्यों आदमी को अपना स्वार्थ ही है नज़र आता
पैसे के लालच में क्यों भूल गया इंसानियत का नाता
दूसरों की ज़िंदगी से क्यों कर रहा खिलवाड़
इस ज़हर से बचने का क्यों नहीं उपाय कर पाता

— रवींद्र कुमार शर्मा

*रवींद्र कुमार शर्मा

घुमारवीं जिला बिलासपुर हि प्र

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