कहानी

कवच कुंडल

पंखुडी नाम की तरह ही सुंदर, कोमल थी। वाणी मीठी मृदुल। हंसती तो ऐसे लगता जैसे फूल झर रहे हो। जब महाविद्यालय में प्रवेश लिया, कितने ही दीवाने आसपास मंडराने लगे। उसे खूब पढ़ना था। प्यार, मोहब्बत सब कुछ सतरंगे सपने सा था उसके लिए। वह मजदूर बाबा की लाडली बेटी थी। उसकी मां घरेलू काम करती थी। जिनके घर वह काम करती थी, वह दीदी उसे पढ़ा रही थी। पढ़ लिखकर कुछ बन जायेगी, तब बनेगी बात। पसीने से तरबतर हो चिलचिलाती धूप में काम करते बाबा को राहत देनी है उसे। लोगों के झूठे बर्तन साफ करती मां को आराम करवाना है उसे।

यौवन की दहलीज पर उसका रूप सौंदर्य खिले पुष्प सा खिल रहा था। टेढ़ी मेढ़ी नजरों से खुद को बचाती वह अपनी मंजिल की ओर बढ़ रही थी।

लायब्रेरी में बैठ वह पढ़ाई कर रही थी। पढ़ने में इतनी लीन थी पता ही नहीं चला, कब सब धीरे धीरे जा चुके है। लायब्रेरी के मैनेजर भले आदमी थे। उनकी आवाज से उसकी तंद्रा भंग हुई। 

” ओहो अंकल, मुझे झपकी आ गयी थी।”

” हां बेटी, चलो मैं तुम्हें छोड आता हूं।”

” नहीं अंकल मैं चली जाऊंगी। आगे मोड पर ही है मेरा घर।”

वह नही चाहती थी, अपनी गरीबी का ढिंढोरा पीटे।

अपने बारे में सोचती वह आगे बढ रही थी, कि अचानक सहपाठी मंगेश ने उसके बिल्कुल पास आकर अपनी बाईक रोक दी। उसे घर छोड़ने की जिद करने लगा। मना करने पर भी उसके पीछे-पीछे आने लगा। उसने धीमी आवाज में मना करने की कोशिश की। लेकिन वह जिद करता रहा। 

जैसे तैसे वह घर के पास पहुंच गयी थी। दूर से पडोस का रामू दिखा तो उस ने अपने अंदाज में उसे इशारा कर दिया। मिनटों में आस-पडोस के छोटे-बडे इकठ्ठा हो गये। अब तो मजनूं बने मंगेश की सीट्टीपिट्टी गुम हो गयी।

” दोबारा हमारी बहन की तरफ आंख उठाकर देखा भी तो आंख फोड़ देंगे तुम्हारी।” 

कठोर हाथ की एक चपत में ही दिमाग ठिकाने आ गया उसका।

“हमारी बहन हैं यह।”

” श्रम जीवी मजदूर की बेटी। हम सबकी इज्जत। हाथ लगाने की गुर्रत न करना।”

“गरीब हैं हम। लेकिन मेहनत की कमाई खाते है। आप से शहजादों की अक्ल ठिकाने लाना जानते हैं हम।”

पंखुडी ने बीच-बचाव न किया होता तो मार-मारकर अधमरा कर देते वे लोग।

लेकिन सबको पता चल गया है, बलिष्ठ, खुद्दार भाईयों की बहन है वह।

उसके आसपास एक कवच कुंडल है जिसे भेदने की जुर्रत न करे कोई।

*चंचल जैन

मुलुंड,मुंबई ४०००७८

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