गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

ज़िन्दगी तुझको बदलना चाहता हूं।
प्यार के सांचे में ढलना चाहता हूं।
एक दुनिया मेरे भीतर भी तो है,
जिसके बाहर मैं निकलना चाहता हूं।
दर्द उसका अब भी ज़ख्मी कर रहा मुझको,
दर्द -ए-इतिहास को मैं भी बदलना चाहता हूं ।
मानता हूं मैं कि मुझसे दूर रहती है बहुत,
ज़िन्दगी तेरी गोद में फिर से मचलना चाहता हूं।
प्रीति की दुनिया निगोड़ी जग की बैरी हो गई,
आंख, आंसू और सपने सा संभलना चाहता हूं।

— वाई. वेद प्रकाश

वाई. वेद प्रकाश

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