आ गया बसंत ऋतुओं का सरताज
आ गया बसंत ऋतुओं का सरताज
डाली डाली फूल लगे हैं खिलने
प्रेम रस नस नस में है बहने लगा
आतुर है सजनी साजन से मिलने
भंवरों की गुंजन मन को है सुहाती
कोयल की कूहक जैसे फुहार हो बरसाती
चिड़ियां भी अब लगी हैं चहचहाने
सुगंध पीली सरसों की दूर से है आती
छोटे दिन खत्म हुए बड़े दिन हैं आने लगे
सूय देव भी अब उत्तर को हैं जाने लगे
सर्दी की ठिठुरन भी अब हो गई है कम
फूल अब बागों को हैं महकाने लगे
पतझड़ जा रहा सब छोड़ आ गया बसंत
गर्मी लगी है झांकने सर्दी का अब हो रहा अंत
प्रकृति ने हर चेहरे पर रौनक है फैलाई
नव ऊर्जा का संचार लेकर आया है बसंत
आम पर अब बौर लगा है आने
मस्ती बसंत की अब लगी है छाने
बिछुड़े हुए मनमीत है तुझे कसम
आ जा एक बार मिलने बसंत के बहाने
प्रेम की है यह ऋतु मधुर श्रृंगार की है बेला
वह भी गुनगुनाने लग जाता है जो होता है अकेला
बसंत आते ही बढ़ जाता है प्रकृति का ओज और तेज
मौसम बन जाता है ख़ुशगुबार बहुत ही अलबेला
— रवींद्र कुमार शर्मा