कच्चा मकान
कच्चा मकान जो ढह गया है अतीत की राख के ढेर में ,
जहाँ की टूटी दीवारें भी बोलती थी l
बुजुर्ग माता- पिता के पास बैठे हुए बच्चे ,
जो चूल्हे की जलती हुई लकड़ी,
और उस पर उबलती हुई चाय की महकी हुई खुशबु ,
जो दूर से बुला लेती थी बिन बुलाए मेहमानों को ,
वो हर जगह की धुंधली हुई यादों पर,
थोड़ी रोशनी पढ़ी तो मंजर दिखाई दिया ,
जहाँ एक दूसरे के ग़म अपने ग़म होते थे ,
जरूरतें पड़ने पर पूरा परिवार एक हो जाता था ,
अब तो हर एक के पक्के मकान बन गए l
और अपने अपने कई मुकाम बन गए।
अब परेशानी अपनी -अपनी हो गई
कोई खुद में ही व्यस्त हो गए,
और सबकी मनमानी हो गई ।
वो माता पिता अब याद नहीं किसी को ,
क्या कहूँ अब वो कच्चा मकान याद नहीं किसी को ,
अतीत के पन्ने अब पलटा नहीं कोई ,
वो मकान सिर्फ यादों का समुंदर रह गया ।
वो कच्चा मकान सिर्फ कच्चा मकान बन कर रह गया।
— वीणा चौबे