ग़ज़ल
निभाना था उसूलों को, झुकाकर सर जिया मैंने
जो बात उठ्ठी कभी तेरी, किया सब अनसुना मैंने
रहे-उल्फ़त का राही हूँ, है रिश्ता दर्द से गहरा
रक़ीबों की अदावत का चखा है ज़ायका मैंने
मुहब्बत की रवायत का सदा ही पास रक्खा है
कभी दुश्मन नहीं समझा, न की आलोचना मैंने
ग़ज़ल-गीतों में अक्सर यूँ तो तेरा ज़िक़्र आता है
मगर सबसे रखा पर्दा, किया ना तज़किरा मैंने
क़यामत-ख़ेज़ दुनिया से, नहीं मरहम मिला करती
पिरोये ख़ून के आँसू तो ज़ख़्मों को सिया मैंने
— डॉ. पूनम माटिया