समाज का सच्चा लाल
भाईचारा के चक्कर में
फेंके चारा चर रहे हैं,
दरी बिछा और पोस्टर चिपका
समाज सेवा कर रहे हैं,
अपना खुद का गान नहीं है,
आन और बान नहीं है,
जाहिर है कोई शान नहीं है,
औरों का झंडा लहराता है,
करीने से कुर्सी लगाता है,
टॉमी शब्द सुन सुनकर
दुम भी बहुत हिलाता है,
अपने मन का नहीं राजा वो,
गुलाम महल में बिराजा वो,
मिल जाए कभी एक टिकट
आंखों में ख्वाब साजा वो,
खुद को खुद से भड़का रहा,
भाई को भाई से लड़ा रहा,
भूला मंजर भूतकाल के
दूजों का मुंह बन हड़का रहा,
अपनों पर आता पल भर में तैश,
एक अकेला करने को ऐश,
हुआ जुगाड़ कभी किसी दिन
घर भर में होगा कैश ही कैश,
सब इसी लाइन में चल रहे हैं,
अपनों संग खुद को छल रहे हैं,
बदबू फैलाते दिया बनकर
गली गली में जल रहे हैं,
अपनों की नजर में बना दलाल है,
मगर समाज का सच्चा लाल है।
— राजेन्द्र लाहिरी