बनकर प्यार
डसने को हमको
भेष बदलकर चल रही
इच्छाधारी नागिन वासना
कर मीठी बातों का श्रृंगार,
बनकर प्यार, बनकर प्यार।
एक सप्ताह तक खूब चला
खेल वासना की नागिन का,
लेकर गुलाब घूम रहे थे सब
फर्क भूल गए रात दिन का,
बनने को यार, बनने को यार।
जहां देखो, वहां देह के प्यासे
पाने को देह बिछा रहे जाल,
इच्छाओं की पूर्ति करने को
चल रहे वो शतरंज सी चाल,
करके इजहार, करके इजहार।
चॉकलेट, टेडी बियर बाँट रहे
कर रहे झूठे वादों पर झूठे वादे,
दिखाया समर्पण करके आलिंगन
समझकर भी नहीं समझें इरादे,
लूटने को तैयार, लूटने को तैयार।
देखो चुम्बनों की बौछार से
साबित करते वो सच्चा प्यार,
समर्पित करके अपनी देह को
बता रहे कितना है ऐतबार,
कर रहे शर्मसार, कर रहे शर्मसार।
ना बुझने वाली प्यास है ये
संस्कारों को खत्म कर रही है,
कुंठाओं से ग्रसित हो रहे हम
संस्कृति पल पल मर रही है,
ढूंढों कोई उपचार, ढूंढों कोई उपचार।
“सुलक्षणा” कर रही है आगाह,
चलाकर कलम निभा रही फर्ज,
नेक राह दिखा रही सबको वो
देखो उतार रही कलम का कर्ज,
बनो होशियार, बनो होशियार।
डसने को हमको
भेष बदलकर चल रही
इच्छाधारी नागिन वासना
कर मीठी बातों का श्रृंगार,
बनकर प्यार, बनकर प्यार।
— डॉ. सुलक्षणा अहलावत