सोरठा – सत्ता
गया देश को भूल, सत्ता – मद में आदमी।
नाशी बुद्धि समूल,कर्म-धर्म करता नहीं।।
जन-सेवा से दूर, सत्ता के भूखे सभी।
भावहीन भरपूर, चाहें कंचन -कामिनी।।
गिरने को तैयार, सत्ता पाने के लिए।
करते मरामार, रेवड़ियाँ भी बाँटते।।
किसे न मोहे आज,सत्ता जैसी मोहनी।
छल-छद्मों के साज,करता पतन चरित्र का।।
कभी न चाहें त्याग,सत्ता को जो पा गए।
खुले हमारे भाग, पत्थर लिखी लकीर है।।
कर्महीन भी मूढ़,सत्ता का सुख चाहते।
हो उलूक आरूढ़, घर अपने भरते सदा।।
रहे रात -दिन चूस, सत्ता -सुख के आम को।
काट रहे जन मूस,जनता में बिल खोदकर।।
खट्टे हैं अंगूर, मिली नहीं सत्ता जिसे।
करता क्या मजबूर, गरियाता दिन-रात है।।
सत्ता -सुख इस देश,वोटों का आधार है।
बदल-बदल रँग – वेश, घूम रहे जन देश में।।
जनता दुखी अपार,सता रहे सत्ता मिली।
करते मरामार, नेता – मंत्री देश के।।
खिलें सदा ही फूल, सत्ता के उद्यान में।
जनता सारी भूल,भरते आप तिजोरियाँ।।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’