अंतर्मन में चले द्वंद को किसको मैं समझाऊं
अंतर्मन में चले द्वंद को किसको मैं समझाऊं
समय का खेल है सारा मैं खुद समझ न पाऊं
अमिट लिखा जो भाग्य में कभी भी मिट न पाए
क्या होगा अगले पल किसको मैं कैसे बतलाऊँ
मिट्टी है यह मानव पिंजरा मिट्टी में मिल जाना
मिल जुल कर रहना है अच्छा क्यों लड़ना लड़ाना
ऊपर वाले की माया है मिलना और मिलाना
एक बार जो चला गया फिर वापिस नहीं है आना
छोटा सा इक्क बीज हैं बोते बड़ा पौधा बन जाता
बड़े बड़े तूफानों में भी वह कैसे टिक जाता
दीमक जब लग जाती उसको अंदर हो जाता कमज़ोर
खोखला पेड़ कहां टिक पाए आखिर में गिर जाता
चला जाऊंगा जहां से कोई लौट कर आता नहीं
यादों ख़्वावों बीते लम्हों में ही नज़र आऊंगा
आंखें नम होंगी सभी की मुझे याद करके
मैं तो बस एक लम्हा बन कर यादों में बस जाऊंगा
कोई तमन्ना नहीं कोई ख्वाव नहीं अब बचा कोई
जी लिया हंसी खुशी है अब और क्या मुझे पाना
अपने साथ ले जाऊंगा उन यादों के हसीन पलों को
अकेले ही बस अकेले ही सफर पर मुझको है जाना
— रवींद्र कुमार शर्मा