कविता

ऋतुपति की धवल चांदनी

बसंत की धवल चांदनी ने
भर दिए राग ऐसे।
पूछो अधरों कि थिरकन से।।
गहरे छिपे राग हैं, इसमें,
देखो मधुर चांदनी कि हलचल ।
छेड़ रही हैं,आज़ मुझे ये चंचल।।
कभी जाना तुम मेरे गांव की छत पर।
गहरे निशान होंगे मेरे हाथों के दीवारों पर।।
पांवों में थिरकती वो पायल।
यादों से कर रही आज़ घायल।।
मधुमास की चित चोर चांदनी ने।
नयनों में भर दिए हों सितारे ये जैसे!
तेरे आने की खबर सुन इन धड़कनों ने।।
सात सुरों के तार छेड़ दिए हैं ऐसे।
मधु की ये चंचल चितवन चांदनी,
अधरों पर आकर बैठी हो जैसे!
कभी पूछना हाल मेरा भी जाकर
प्रकृति प्रेम के उस आंचल में,
छिपी हैं जहां मेरी यादों की गठरी।
खोल कर देखना इन्द्रधनुषी फुलवारी।।
सुरभि ऊषा की रागिनी का आगाज़ छेड़ रही है।
मधुवन की महक महसूस कर रही है।।
बाहरों की गूंज मेरे गांव में भी उठी होगी।
फूलों से सजी सीढ़ी नुमा खेती होगी।।
मुझे भी आज़ ऋतुराज ने आवाज़ें दी होंगी।
मेरी उन मधुर स्मृतियों ने गहरी आहें भरी होंगी।।

— सन्तोषी किमोठी वशिष्ठ “सहजा”

सन्तोषी किमोठी वशिष्ठ

स्नातकोत्तर (हिन्दी)

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