गीत/नवगीत

गीत – पहेली देख रहा हूँ

सिन्धु-तीर पर लोगों की अठखेली देख रहा हूँ।
मस्ती करते अलबेले-अलबेली देख रहा हूँ।।

दूर क्षितिज से आकर लहरें कितना इठलाती हैं।
बाहों में भरकर धरती को झूम-झूम जाती हैं।
लहरों को मैं हर पल नई-नवेली देख रहा हूँ।।

एक नव-युगल प्रथम बार सागर-तट पर आया है।
कौतूहल में चीख रहा है, तन-मन हर्षाया है।
उनका यह उन्मुक्त हास, रंगरेली देख रहा हूँ।।

लहरें भी तो तट तक आकर, लौट-लौट जाती हैं।
मिलने और बिछड़ने का क्रम हमको समझाती हैं।
इसी सत्य में लिपटी एक पहेली देख रहा हूँ।।

— बृज राज किशोर ‘राहगीर‘

बृज राज किशोर "राहगीर"

वरिष्ठ कवि, पचास वर्षों का लेखन, दो काव्य संग्रह प्रकाशित विभिन्न पत्र पत्रिकाओं एवं साझा संकलनों में रचनायें प्रकाशित कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ सेवानिवृत्त एलआईसी अधिकारी पता: FT-10, ईशा अपार्टमेंट, रूड़की रोड, मेरठ-250001 (उ.प्र.)

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