गीत – पहेली देख रहा हूँ
सिन्धु-तीर पर लोगों की अठखेली देख रहा हूँ।
मस्ती करते अलबेले-अलबेली देख रहा हूँ।।
दूर क्षितिज से आकर लहरें कितना इठलाती हैं।
बाहों में भरकर धरती को झूम-झूम जाती हैं।
लहरों को मैं हर पल नई-नवेली देख रहा हूँ।।
एक नव-युगल प्रथम बार सागर-तट पर आया है।
कौतूहल में चीख रहा है, तन-मन हर्षाया है।
उनका यह उन्मुक्त हास, रंगरेली देख रहा हूँ।।
लहरें भी तो तट तक आकर, लौट-लौट जाती हैं।
मिलने और बिछड़ने का क्रम हमको समझाती हैं।
इसी सत्य में लिपटी एक पहेली देख रहा हूँ।।
— बृज राज किशोर ‘राहगीर‘