इंतजार
आज नीलू के ससुर साहब का शरीर भी शांत हो गया! कमाल है, वही दिन, वही तारीख, वही समय. श्वसुर जी की पार्थिव देह सामने पड़ी थी और आंखों से झर-झर नीर बहाती नीलू के सामने पांच साल पहले का दृश्य नमूदार हो गया था.
“भाई की शादी में क्यों नहीं जा रही हो बेटा?” सासू मां ने प्यार से पूछा.
“आपकी तबियत इतनी ढुलमुल हो रही है, तो मैं कैसे जा सकती हूं? मेरा मन और ध्यान तो यहीं अटका रहेगा!”
“इतनी चिंता क्यों करती हो? यहां मेरी सेवा के लिए पांच बहुएं तो हैं ही, इकलौते भाई की शादी में तुम्हारा जाना बहुत जरूरी है.” सासू मां का स्नेह उमड़ रहा था.
“पांच बहुएं अपनी जगह, मैं अपनी जगह! ऐसी हालत में आपको छोड़कर मैं नहीं जाऊंगी.” नीलू दृढ़ संकल्प थी.
“तुम्हें लगता है कि तुम्हारे पीछे मैं चली जाऊंगी? विश्वास रखो, मैं तुम्हारा इंतजार करूंगी. बेटा अनिल जल्दी से तैयारी करके नीलू को ले जाओ.”
इतने अनूठे प्यार का मान रखने को नीलू और अनिल शादी में चले तो गए, पर मन उधर ही अटका हुआ था.
सुख से शादी का दिन निकल गया. दूसरे दिन बहू को पगफेरे के लिए जाना था. नीलू घर के काम से लेकर हर काम में पारंगत थी, वह भाभी के बाल सेट कर रही थी. तभी सामने टेबिल पर रखा फोन खड़का और नीलू के मन में हुआ खटका. सचमुच वहीं से फोन आया था- “मम्मी की तबियत ज्यादा खराब हो रही है, आप लोग जल्दी आइए.”
तुरंत दोनों ने गाड़ी उठाई और चल दिए. जयपुर से दिल्ली 5 घंटे लगने थे, इस बीच किसी समाचार का साधन भी नहीं था. घर पहुंचकर दोनों मम्मी के कमरे की ओर भागे.
“आ गई बेटा… भाई की शादी… करके?”
“जी मम्मी जी”, नीलू ने मां का सिर अपनी गोद में रखते हुए कहा.
“देख… मैंने… कहा था न!… इंतजार….” उनका सिर लुढ़क गया था.
पंडित जी के आने से हलचल मच गई थी. बाबा के पार्थिव शरीर को भी उनका इंतजार था.
— लीला तिवानी