अपने अस्तित्व का भान है प्रेम
प्रेम व्याप्त है जग में यहां-वहां-सर्वत्र,
प्रेम ही बनाता-बनवाता है इष्ट-मित्र,
प्रेम-सा नहीं है अनमोल भाव इस जहां में,
प्रेम ही है सबसे अधिक सुवासित इत्र।
संतुष्टि के लिए प्रेम का अभिसिंचन है जरूरी,
प्रेम का अभिसिंचन आनंद है, नहीं मजबूरी,
पावन प्रेम गंगा घाट-सा निर्मल-उज्ज्वल है,
प्रेम का अभिसिंचन नहीं जानता समीपता-दूरी।
माता-पिता का दुलार है प्रेम का अभिसिंचन,
जीवन-साथी का प्यार है प्रेम का अभिसिंचन,
मौन भी होता है प्रेम, मुखर होना जरूरी नहीं,
अपने अस्तित्व का भान है प्रेम का अभिसिंचन।
प्रेम परवाह है, व्यवहार है, निराकार-साकार है,
प्रेम निःस्वार्थ है, विश्वास है, सृष्टि का आधार है,
शब्द नहीं, न स्पर्श जरूरी, कोमल भाव है प्रेम,
ईश्वरीय अनुभूति है, स्नेह की सुवासित धार है।
— लीला तिवानी