मुक्तक/दोहा

दोहा

धार्मिक


करते रहिए नित्य ही, सब-जन मानस पाठ।
दोहे चाहे पाँच हों, भले साठ या आठ।।

जीवन निर्मल कीजिए, कहते तुलसी दास।
अपने मन के राम से, रखिए सारी आस।।

जाप राम जी का करें, धर मन में विश्वास।
बस हो इतनी कामना, छोड़-छाड़ सब आस।।

श्रद्धा अरु विश्वास संग, थामें रखिए हाथ। चलना अपना काम है, गुरू कृपा के साथ।।

जहाँ–जहाँ पर हैं गुरू, वहीं रहे ये दास।
गुरू चरण में है जहाँ, मेरा तो विश्वास।।

सद्गुरु की महिमा बड़ी, जाने सकल जहान।
फिर भी कुछ ही लोग हैं, जो लेते संज्ञान।।


श्री चित्रगुप्त जी


लेखा जोखा कर्म का, रखते सबका आप।
छूट नहीं देते कभी, पाप, पुण्य संताप।।


वरदान


मुझे मिले उपहार में, इक ऐसा वरदान।
ईश चरण मम शीश हो, बस इतना हो ज्ञान।।

कैसे हो माँ तेरी पूजा, या करना है पाठ।
जाने कैसी बुद्धि है, उम्र हो रही साठ।

माँ इतना वरदान दो मुझे, हो मम का उद्धार।
हाथ शीष पर रहे सदा, समझूँ जीवन सार।।

शृंगार


आकर्षित है कर रहा, प्रभु‌ वर का शृंगार।
सभी प्रभो को मानते, निज जीवन आधार।।

मधुरिम अनुपम लग रहा, नित्य प्रकृति शृंगार।
हर प्राणी मन में बहा, लगती सुखद बयार।।

मानव का शृंगार है, मानवता की छाप।
हृदय सभी के है छपा, अपनी अपनी थाप।।

जीवन अंतिम सत्य का, मृत्यु करें शृंगार।
भला मानते क्यों नहीं, जो इसका आधार।।

गंगा मैया का करें, भक्त सभी शृंगार।
महाकुंभ में देखिए, सजा भव्य दरबार।।


आकाश


छू लो जब आकाश भी, झुका रहे ये शीश।
मातु-पिता की साधना, मानो तुम वारीश।।

धरती अंबर से बड़ा, मात -पिता पग धूल।
जीवन अपने बात ये, तुम मत जाना भूल।।

कोशिश जो करते कभी, आसमान को देख।
उनके हित आता नहीं, सफल एक अभिलेख।।

अंबर भी अब छोड़ता, अपने मूल का रंग।
मार प्रदूषण की सहे, उसकी गरिमा भंग।।

आसमान का फट रहा, आज कलेजा रोज।
लालच मानव का बढ़ा, करता नित नव खोज।।


पर्यन्त


नेक राह पर वो चले, निज जीवन पर्यन्त।
समझ किसे आया भला, ये कैसा है अंत।।

करते रहना चाहिए, हम सबको ही काम।
जीवन का पर्यंत भी, बन जाएगा धाम।।

लोभ मोह से दूर हम, प्रभु में मेरा ध्यान।
ऐसे जीवन पर्यन्त ही, बना हुआ अज्ञान।।

भूल समझ आती हमें, जीवन के पर्यंत।
तनिक बोध होता कहाँ, समझाते जब संत।।

कब जीवन पर्यन्त ही, मातु पिता आराम।
बच्चे उनको कर रहे, नाहक ही बदनाम।।


वीणापाणी


वीणा पाणी कीजिए, सब पर कृपा अपार।
नत मस्तक हो आपके, उसका हो उद्धार।।

वीणा पाणी दे रहीं, हमको विधा ज्ञान।
शीश हाथ जिनके रहे, उसका बढ़ता मान।।

वीणा पाणी शारदे, दे दो अक्षर ज्ञान।
मैं मूरख अंजान हूँ, पता नहीं विधान।।

धवल धारिणी शारदे, जिह्वा सबके वास।
जिसकी जैसी भावना, वैसा रहे सुवास।।

हंस सवारी आपकी, मैया मेरी आप।
कृपा रहे माँ यूँ सदा, दूर रहे संताप।।


शारदा


मातु शारदा दीजिए, मुझको अक्षर ज्ञान।
मेरी कविता को मिले, पाठक गण से मान।।

मातु कृपा इतनी करो, रखो शीश मम हाथ।
छंदों का भी ज्ञान हो, गीत ग़ज़ल के साथ।।

जो कुछ भी हम लिख रहे, कृपा मातु है आप।
वरना मेरे मन भरा, निंदा नफ़रत पाप।।

मातु शारदा दे रही, सबको उत्तम ज्ञान।
मूरख सारे लोग वे, जो रहते अंजान।


महाभारत


घर-घर में ही आज है, दिखता इसका दंश।
महाभारत हैं कर रहे, निज कुल के ही वंश।।

जाने कैसा रंग है, जान रहे हम आप।
पीछे हटते हम कहाँ, बसा हृदय में पाप।।

नेताओं में हो रहा, आपस में तकरार।
जनता केवल चाहती, मुफ्त मिले भरमार।।

अर्जुन मोही हो गये, युद्ध बीच मैदान।
केशव के उपदेश से, दूर हुआ अज्ञान।।

लड़ते -लड़ते हो रहे, दोनों ही कंगाल।
भला समझता कौन है, कलयुग का जंजाल।।

ठान महाभारत दिया, कृष्ण कहाँ हैरान।
कौरव ने जाना नहीं, रचते विष्णु विधान।।


विविध


मुझे बुरा जो कह रहे, उनका है आभार।
इससे उत्तम और क्या, हो सकता उपहार।।

तेज कदम जो भागते , मंजिल जिनका भार।
बहुत बड़ा जिनके लिए, पावन जीवन सार।।

रंग बदल कर आप भी, बदल लीजिए ताज।
जीवन में सबसे बड़ा, उत्तम है यह काज।।

लोग भले ही आपका, नित्य बिगाड़ें काज।
अनदेखा उनको करें, ठेलठाल कर लाज।।

मंगल कारी आज का, दिवस बहुत है खास।
नहीं किसी से आस का, खुद इतना विश्वास।।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921

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