कविता

खुशबू बन बिखरना है

मर जाने के डर से
नहीं मरना चाहते हो,
तो आज ही मर जाओ,
बड़ी जिंदगी चाहते हो
तो अभी सुधर जाओ,
सुधर कर भी गर मुर्दे ही रह गए,
बिना प्रतिरोध सैलाब के
धारे में बह मर गए,
तो बता जी रहे थे वो
कौन सी जिंदगी थी,
न प्रतिकार न प्रतिशोध
बकवास जीवन अब तक
क्यों और किसके लिए सह गए,
खंजर को हमारी जरूरत कभी नहीं होती,
अगर लगाव होता तो
वार करता ही क्यों?
हल्के वार से भी शरीर
नहीं रह पाता ज्यों का त्यों,
मैं सुधर चुका हूं,
अपनी जागृति वाली खुशबू संग
कोने कोने में बिखर चुका हूं,
कभी न कभी लोग साथ आएंगे,
महक खोजते खोजते
जब अपना भूत खोजेंगे
तो निश्चित ही खुद खुशबू बिखरायेंगे,
जिन्हें औरों की ड्योढ़ी पर
निश दिन नाक रगड़नी है रगड़े,
ऐसों को छोड़ो उनके हाल पर
हर हाल में आगे बढ़ना है
उनका जाल काटते
बिना किये कोई झगड़े,
जिन्हें सशरीर लंबा जीना है तो जीये,
मगर हम मर कर भी
सदियों तक जीकर दिखाएंगे।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554

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