एक दिन जाना होगा।
कितना भी झुठलाएं पर एक दिन जाना होगा।
बिना तैयारी ही घर से जाने कहां ठिकाना होगा।
न कोई अपना होगा न कोई संग अपने चलेगा ;
बेमन अपने हाथों से सजाए घर को त्यागना होगा।
काश ! कुछ मौहलत मिलती मन की कर लेता कोई ;
मौत आनी है ये जान कुछ तो सही कर लेता कोई।
ज़िम्मेदारी निभा बिखरा सा सब समेट लेता कोई ;
जीभर अपनों को गले लगा दिल हल्का कर लेता कोई।
पर वो जगह ऐसी है यहां मर्ज़ी किसी की नहीं चलती,
उसकी मर्ज़ी बिना ज़िंदगी एक पल नहीं और मिलती।
श्वास कितने हैं लिखे अपने जो ये जान लेता कोई ;
शायद कोई गिला न रह जाता फिर जीवन में कोई।
चाहे कितना भी करीबी कितना ही अजीज़ हो कोई ;
कैसी वो जगह है जहां उसे तन्हा ही निभाना होगा।
— कामनी गुप्ता