ग़ज़ल
अब तो आते नहीं है रास ये नाले मुझको
कर दे गुमनाम हवाओं के हवाले मुझको
मैं तो लड़ता रहा ताउम्र अंधेरों के खिलाफ
बेवजह करते हैं बदनाम उजाले मुझको
गो सरापा हूं गया डूब तेरे दलदल में
इसकी गहराई से अब कौन निकाले मुझको
उड रहा आज हूं खुद अपनी ख़लाओं में ही
गर है तूफान में दम सरे राह उछाले मुझको
रात तो स्याह से ज्यादा सियाह होने लगी
पुर खतर राह है अब कौन संभाले मुझको
खौफ लहरों का नहीं जंग भवर से भी है
गर है तूफान में दम आज बहा ले मुझको
चाहता मैं भी हूं अब दूर निकल जाऊं खुद से
चलने देते नहीं यह पांव के छाले मुझको
रूह का अपना सफर जाने कहां ले जाए
कैद कर पाएंगे क्या दुनिया के ताले मुझको
— डॉक्टर इंजीनियर मनोज श्रीवास्तव