गंभीर और सुलझे जन
देखो कैसा मुमालिक ये,
फर्ज को भुला बैठा है
बन बैठा जज या पीठाधीश,
काम क्या खुद का भूल गया
कहते जो खुद को खबरनवीस,
दो गुटों में बैठे हैं,
एक दूजे से ऐंठे हैं,
आधा सच बताता वो,
आधा सच बताता ये,
आधा झूठ परोसता वो,
आधा झूठ परोसता ये,
बैठे गोद धनकुबेरों के
जन मन गन को लूट खसोटता ये,
भ्रामकता में गूंगे बहरे जन,
नहीं सच को खोजे इनका मन,
तवायफों के दीदार को बैठे
मुजरे में सब उलझे हैं,
कुछ मत कहना इनको यारों
जन गंभीर बहुत और सुलझे हैं।
— राजेन्द्र लाहिरी