धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

त्योहारों में परंपरा का निर्वाह

हाेली आ रही है  । लेकिन उत्साह उमंग का दूर दूर तक नामो निशान नहीं है। किसी को भी लग नही रहा की होली   आ रही है। कारण देखा  जाए तो प्रत्यक्ष रूप में तो कुछ भी नहीं है। किन्तु परोक्ष रूप में बहुत से घटक है। जो त्योहार के रंग को फीका करते जा रहे हैं। अब तो परंपराएं एक बोझ बनती जा रही है। कारण हमारी जीवन शैली और  परंपराओं में सामंजस्य नहीं है।  त्योहारों में ढेर सारी परंपराओं का समावेश शायद हमारे पूर्वजों ने इस लिए किया था की उनसे जीवन में सरसता आती थी और लोगों का मनोरंजन भी होता था।  किन्तु आज हमारे पास फुर्सत तो है ही नहीं। तो फिर  उन परंपराओं का निर्वाह कैसे हो जो ढेर सारी फुर्सतो और लोगो के साथ की जाती थी।

उदाहरण स्वरूप पहले परंपरा ये थी की वसंतपंचमी के दिन से ही होलिका दहन के लिए लोग एक निर्धारित स्थान पर लकड़ियां  इकट्ठी कर दिया करते थे।किंतु आज  महानगरों में ना तो स्थान है , ना लोगों के पास समय है।  बात होली की हो रही है तो जगह जगह फाग खेलने  और फाग गाने का भी रिवाज़ था। महिलाओं द्वारा विभिन्न पकवान और उस समय  उपलब्ध नए और सस्ते आलुवो के चिप्स और पापड़ और विभिन्न प्रकार के मिष्ठान बनाए जाते थे। और लोग एक सप्ताह तक होली मिलने आते थे तब यही सब उन्हे खिलाया जाता था। किन्तु अब इस 365 दिनों और 24 घंटे  चालू रहने वाली कंपनियों में काम करती महिला पुरुष कैसे मनाए त्योहार। उनके अंदर तो अवसाद घिर आता है कि वह त्योहार पर घर में भी नही रह पाते। अतः अब समय आ गया है कि त्योहारों और परंपराओं आदि से जुड़े रीत रिवाज़ देश कल परिस्थित के अनुसार संशोधित हों। क्यो की कृषि प्रधान  गांव में बसने वाला भारत अब बहुराष्ट्रीय कंपनियों वाला  और शहरों में बसने वाला भारत बन गया है। तो अब परंपराओं और रिवाजों में बदलते परिवेश के साथ  संशोधन होना चाहिए जिससे हम संस्कार विहीन होने से बच सकते हैं और अपनी परंपराओं को जीवित भी रख सकते हैं।

— प्रज्ञा पांडेय मनु

प्रज्ञा पांडे

वापी़, गुजरात

Leave a Reply