कविता

आज की नारी

जटिल बंदिशें साहस से तोड़ रही है वो,
वक्त को रफ्तार से पीछे छोड़ रही है वो,
भयंकर तूफानों को आंख दिखा कर,
किस्मत के बंद ताले खोल रही है वो ।

बेखौफ नई चुनौतियां स्वीकार रही है वो,
हर रणक्षेत्र में जज़्बा बुलंद कर रहीं है वो,
पंखों में चाहत के सतरंगी रंग सजा कर,
धरती से अंबर तक उड़ान भर रही हैं वो ।

रूढ़िवादिता की जड़ों को उधेड़ रही हैं वो,
तटस्थ हो मेहनत से लक्ष्य जीत रही है वो,
तकनीकी आधुनिक ज्ञान को अपनाकर,
असंभव संकल्प को पूरा कर रही है वो ।

कोमलांगी से बन काबिल हुंकार रही है वो,
विश्वस्तरीय पटल पर ललकार रही है वो,
टूटी कड़ियों को बुद्धिमत्ता से जोड़ कर,
दसों दिशाओं में परचम लहरा रही है वो ।

दुर्गम सीमाएं बेझिझक अब लांघ रही है वो,
अपनी अलग श्रेष्ठ पहचान बना रही है वो,
उबड़-खाबड़ रास्तों पर हिम्मत दिखाकर,
नारीशक्ति के कीर्तिमान झण्डे गाड़ रही है वो ।

— मोनिका डागा “आनंद”

मोनिका डागा 'आनंद'

चेन्नई, तमिलनाडु

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