सामाजिक

बेमानी हैं नारी उत्थान की बातें और दावे,

कुछ फीसदी ग्लैमरस सन्नारियों के सफल जीवन और चमक-दमक को छोड़ दिया जाए तो आज भी आम नारी की स्थिति संतोषजनक नहीं कही जा सकती और यही कारण है कि हमें हर साल महिला दिवस मनाते हुए नारी उत्थान के संकल्पों को याद करने, नारी महिमागान और नारी विकास के बारे में जागरुकता संचार करने की आवश्यकता महसूस करनी पड़ रही है।

आम नारी जीवन के जिन अभावों, समस्याओं, संत्रासों और अनकही पीड़ाओं, अवसादों आदि के दौर से गुजर रही हैं उनकी कल्पना शायद ही उन लोगों को हो, जो महिला विकास से जुड़े महकमों, संगठनों और संस्थाओं से जुड़े हुए हैं।

नारी अस्मिता के गर्भ में आज भी इतनी सारी विषमताएं और वैचारिक मतभेद व्याप्त हैं कि इनका समूल खात्मा किए बिना नारी उत्थान की बातें और इस बारे में किए जाने वाले दावे बेमानी होने के साथ ही पब्लिसिटी के फण्डों से कुछ अधिक नहीं कहे जा सकते।

सर्वाधिक परेशान हैं विधवाएं और परित्यक्ताएं

भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति आज भी दूसरे दर्जे के नागरिक की तरह ही है। फिर विधवाओं और परित्यक्ताओं की हालत तो और भी अधिक खराब व दयनीय है। यहां तक कि शगुन के दौरान इनके दर्शन व छाया तक को अपशकुन समझा जाता है। ऐसी उपेक्षित, दीन-हीन महिलाओं के साथ घर-परिवार तक में शोषण, उत्पीड़न होता है पर संगठित स्वरूप के अभाव में इन्हें दुर्भाग्य समझकर जीने और जीवनभर कुण्ठाओं के महासागर में भटकते रहने की हालत है।

देश का कोई सा कोना क्यों न हो, सब तरफ असली मुद्दां को जानने और इनका हल करने की ईमानदार कोशिश कहीं नहीं हो पा रही। सब जगह महिलाओं की स्थिति एवं हैसियत न्यूनाधिक रूप में तकरीबन ऐसी ही है।

मूल समस्याओं का हो आकलन

इन इलाकों में बालिका के रूप में जन्म लेने वाली नारी को ताजिन्दगी, समस्याओं, संत्रासों और कुष्ठाओं के बीच जीना व अंततः अनसुलझी पीड़ाओं और दुःखद अनुभवों के साथ मरने को विवश होना पड़ता है। लिंगभेद, असमानता का व्यवहार, सदैव काम का बोझ, शंकाओं, रूढ़ियों और पुरुष प्रधान समाज व्यवस्था के चलते आज भी महिलाओं की स्थिति बेहतर नहीं कही जा सकती।

मांगलिक आयोजनों में मिले सम्मान

ख़ासकर विधवाओं और परित्यक्ताओं के भाग्य में तो शोषण, उपेक्षा और संत्रासों के सिवा कुछ भी नहीं बदा है। धूमावती माता को पूजने वाले समाज में विधवाओं के दर्शन तक को अशुभ माना जाना आज भी परम्परा का अंग बना हुआ है। इस कारण मांगलिक आयोजनों में इनकी भागीदारी उपेक्षा के चरम के साथ नगण्य ही रहती है।

वैधव्य ने इनके संपूर्ण जीवन की खुशियां और उल्लास छीन लिया है और उसके बदले दिए हैं घुट-घुट कर मरने, विवादों को साथी बनाकर जैसे-तैसे दिन काटने के हालात। ये संभ्रांत से लेकर दीन-हीन परिवारों तक सभी में तकरीबन एक जैसे हालातों में जीने को विवश हैं।

अनुचित परम्पराओं का खात्मा हो

और तो और मांगलिक आयोजनों के वक्त विधवाओं के भाल पर तिलक लगाने की बजाय हथेली के पृष्ठ भाग में तिलक जैसा चिह्न बना दिया जाता है। पता नहीं यह परम्परा कब से शुरू हुई। मगर इससे मांगलिक उत्सवों के उल्लास के बावजूद विधवाओं में आत्महीनता और तिरस्कृत होने का भाव अनुभव होता है। इसी तरह की हालत परित्यक्ताओं की है।

उपेक्षा और आक्षेपों का दंश न दें, सहयोग करें

इन उपेक्षित और वंचित महिलाओं की कार्यशैली और चरित्र पर अंगुली उठाने वालों की कोई कमी नहीं है लेकिन कोई यह नहीं सोचता कि इनका जीवन निर्वाह कैसे होता होगा, इनकी रोजमर्रा की तकलीफों का समाधान कैसे होता होगा?

वंचित नारियों को सम्बल देना सामाजिक जिम्मेदारी

सहकार और सहयोग से जी चुराने वाले लोग केवल टीका टिप्पणियों में भी इन्हें उलझाए रखते हैं। जबकि यह समाज का दायित्व है कि अपने आस-पास, समाज और क्षेत्र की महिलाओं के सुख-दुःख की चिन्ता करते हुए उन्हें यथोचित सम्बल प्रदान करे। पर जहां कर्त्तव्य निभाने की बात आती है वहाँ हम पीठ दिखाकर पलायन करने लगते हैं।

चौतरफा संत्रासों से घिरी है आधी आबादी

सामान्य महिलाओं से लेकर विधवाओं और परित्यक्ताओं तक के इन हालातों के पीछे जो मुख्य कारण रहे हैं उनमें अशिक्षा, जागरुकता व हुनर का अभाव, घर-परिवार में उपेक्षा, आर्थिक स्थिति बदतर होना, आत्मनिर्भरता का अभाव, मैत्रीपूर्ण साहचर्यहीनता, नाता(नातरा) प्रथा, बच्चों की परवरिश का बोझ, पुरुष प्रधान सोच, सामाजिक हीनता भाव, बहुमुखी उपेक्षा, उत्पीड़न, शोषण, धार्मिक पारिवारिक एवं सामाजिक रूढ़ियों का बंधन, पुरातन सोच, शंका भरा माहौल, चौतरफा असुरक्षा, अनावश्यक शोक, आत्मक्लेशी स्वभाव, बहुविवाह, पूर्व से विधवा हो चुकी महिलाओं का दबाव व कुण्ठापूर्ण व्यवहार इत्यादि प्रमुख हैं।

सर्वाधिक व्यथा में जीती हैं  बाल विधवाएं। जिनकी शादी होते ही पति की मौत भरी जवानी में हो जाती है अथवा पति का मुँह तक भी देख नहीं पाती।

नारी ही नारी की सबसे बड़ी दुश्मन

विधवाओं की परंपरा का दुखद हिस्सा यह है कि वे अपनी ही रूढ़ियों को बरकरार रखने नव-विधवाओं पर जुल्म ढाती है। इनका मनोविज्ञान इतना विकृत होता है कि वे इन्हें भी अपनी तरह देखना चाहती हैं और बहुधा नौजवान युवतियों को भी वैधव्य मिलने पर जबरन बाल काटकर मुण्डन, श्वेत साड़ियां पहनाने, चूड़ियां फोड़ देने, सदैव शोकाकुल दिखने आदि का बर्ताव करती हैं और बेवजह दिन-रात शोक में डूबोये रखने की हरचन्द कोशिशों में लगी रहती हैं।

इस वैधव्य के साथ ही शुरू हो जाता है विधवाओं पर दमन का अविराम सिलसिला। मेला, पर्व, त्योहार, मांगलिक आयोजन, पारिवारिक समारोह आदि के रंगों व उल्लास से इन्हें बेहद दूर रखा जाता है और घर का अंधेरा कोना ही इनके लिए पल-पल काटने का सहारा हो जाता है।

सैकड़ों-हजारों विधवाएं हैं, जो उपेक्षित व कुण्ठित जीवन जी रही है। इनके समग्र जीवन पर यदि शोध कार्य किया जाए तो ढेरों रहस्य सामने आ सकते हैं। विधवाओं को लेकर अपशब्द और ढेरों कहावतें प्रचलित है, जो इनकी नारकीय स्थिति को अभिव्यक्त करते हुए पीड़ा पहुंचाती हैं।

दमन और शोषण से दिलाएं मुक्ति

अकेली, असंरक्षित और असहाय होने की स्थिति में विधवाओं के साथ शोषण की प्रवृत्ति भी देखी जाती है। कामकाजी विधवाएं शंकाओं से अछूती नहीं हैं। पुरुष प्रधान सामाजिक व्यवस्था में जहां सामान्य औरत नगण्य और अधीन मानी जाती रही है, ऐसे में यहां विधवाओं और परित्यक्ताओं की वस्तुस्थिति के बारे में कल्पना सहज ही की जा सकती है।

आम महिलाओं में जागरुकता का अभाव

महिला विकास से संबद्ध विभागों द्वारा अब तक इस दिशा में कोई ख़ास काम नहीं हो पाया है। केवल ऊपरी तौर पर नारी उत्थान की बातें की जाती रही हैं। और इसका लाभ जागरुक महिलाओं के समूह प्राप्त करने में पीछे नहीं रहते। लेकिन एक आम जरूरतमन्द महिला तक इन योजनाओं की जानकारी तक नहीं पहुंच पाती। न इस दिशा में कोई पहल करता है।

अशिक्षा और विकास की दृष्टि से अज्ञानता के कारण देश के अधिकांश हिस्सों में महिला साक्षरता की दर काफी न्यून है। इनमें भी विधवाओं व परित्यक्ताओं में साक्षरता दर नगण्य है। तकरीबन सभी समाजों के रीति-रिवाजों, धार्मिक, सामाजिक व आर्थिक सांस्कृतिक दृष्टि से महिलाओं की भूमिकाओं पर कई तरह के घोषित और अघोषित बंधन हैं।

विवाहिताओं में से अधिकांश विधवाएं और परित्यक्ताएं पृथक से जीवन निर्वाह के आधार के अभाव में ससुराल में रहती हैं और अधिकतर मामलों में इन्हें सुख-सुविधा और जीवन निर्वाह का सहारा तक नहीं मिल पाता।

सर्वाधिक दोषी हैं दुर्व्यसनी और आवारा पुरुष

एकाधिक पत्नियां होने की परंपरा की वजह से भी पारिवारिक जीवन डांवाडोल रहता है, वहीं पलायन की समस्या है। इस कारण पुरुष बाहर जाकर भी आम महिलाओं से  संबंध बना लेते हैं। इससे पारिवारिक कलह बना रहता है व पत्नी को परित्यक्ता होने की स्थिति में पहुंचा दिया जाता है।

खूब सारे बदचलन आवारा पति दुर्व्यसनों का शिकार हो जाने से परिवार का कबाड़ा करने में पीछे नहीं रहते। अधिकांश विवाहिताएं शराबी पतियों के कारण त्रस्त हैं और घर-परिवार चलाने का सारा दारोमदार इन्हें ही संभालना पड़ता है।

पहली पत्नी को धोखा देकर दूसरी पत्नी रख लिए जाने की बुराई व्याप्त होना महिला विकास में बाधक है। इस मामले में एक महिला ही दूसरी महिला की जीवन भर के लिए घातक दुश्मन बन जाती है। विधवाएं व परित्यक्ताएं उनके उनके माता-पिता के लिए भी जीवन भर परेशानी व तनाव का कारण बनी रहती हैं। अधिकतर क्षेत्रों में नारी को उपभोग की वस्तु समझने के हालात हैं।

आजीविका के परम्पराग स्रोत हुए खत्म

विधवा या परित्यक्ता महिलाओं में से शिक्षित और आत्मनिर्भर महिलाओं की संख्या अल्प ही होती है। ऐसे में घर चलाना और बच्चों का पालन-पोषण करना भारी पड़ता है। इन्हें शोषण, झिड़कियों आदि के हालात में मेहनत, मजदूरी करने को विवश होना पड़ता है।

आजीविका निर्वाह के परम्परागत स्रोत अब समाप्त हो चले हैं। वनों से लकड़ी व वनोपज लाकर कमा खाने की स्थितियां समाप्त हो चली हैं। घरेलू काम धंधे या कुटीर उद्योग पर दुर्दशा की काली छाया है। ऐसे में इन उपेक्षित, गरीब और वंचित महिलाओं को जीवित रहने के लिए ही संघर्ष करना पड़ता है। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की बात तो दूर की कौड़ी है।

आत्मनिर्भरता देना ही सर्वोपरि उपाय

इसके अलावा अनपेक्षित और मिथ्या सामाजिक एवं परिवेशीय आक्षेपों के दौर से गुजरते हुए इन महिलाओं के लिए समाज में जीना यंत्रणागृह की यातनाओं से कम नहीं होता। इन विधवाओं, परित्यक्ताओं और उपेक्षित नारियों को स्वाभिमानी जीवन बहाल करने की दृष्टि से यथायोग्य समुचित पुनर्वास, आत्मनिर्भरता, आर्थिक विकास पर स्वावलंबन या इस तरह की लाभकारी योजना का उपलब्धिमूलक सूत्रपात नहीं हो पाया है।

ठोस योजना हो तभी बदलाव संभव

महिला दिवस पर इन महिलाओं के नाम पर नारों, घोषणाओं और वादों से ऊपर उठकर इन्हें सुखदायी जीवन, दाम्पत्य सुकून देने के साथ ही सम्मानजनक स्थिति प्रदान करने की ठोस योजना का सूत्रपात होना जरूरी है। प्रत्येक परित्यक्ता और विधवा को उसकी शिक्षा-दीक्षा और हुनर के अनुरूप नौकरी मिल जाने की अनिवार्यता लागू हो जाने से काफी हद तक बदलाव आ सकता है।

जीने और आगे बढ़ने के भरपूर अवसर दें

इसके लिए सामाजिक जागरुकता संचार के अभियान चलाए जाने की भी आवश्यकता है जो कि एक-दो दिन या सप्ताह भर तक सीमित न होकर साल भर चलने चाहिएं।

हम सभी की जिम्मेदारी है कि प्रत्येक स्त्री अपने भीतर समाहित शक्ति तत्त्व को पूर्ण जागृत कर समाज और देश में अपनी अहम् भूमिका का निर्वाह कर मनुष्य जीवन को धन्य एवं गौरवान्वित कर सके।

सभी को महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं ….

– डॉ. दीपक आचार्य

*डॉ. दीपक आचार्य

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